SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षष्ठ कर्मग्रन्थ ८७ इस प्रकार मोहनीय कर्म के पश्चादानुपूर्वी से वन्ध और सत्ता स्थानों तथा पूर्वानुपूर्वी से उदयस्थानों को बतलाने के बाद अब इनके भंग और अवान्तर विकल्पों का निर्देश करते हैं। सबसे पहले बन्धस्थानों का निरूपण करते हैं। छब्बावीसे चउ इगवीसे सत्तरस तेरसे दो दो । नवबंधगे वि दोन्नि उ एक्केवकमओ परं भंगा ॥१४॥ शब्दार्थ-छ-छह, बावीसे-बाईस के बन्धस्थान के, चउचार, इगवीसे-इक्कीस के बन्धस्थान के, सत्तरस-सत्रह के बंधस्थान के, तेरसे-तेरह के बंधस्थान के, दो-दो-दो-दो, नवबंधगे-- नौ के बन्धस्थान के, वि-भी, दोनिउ-दो विकल्प, एक्केक्कंएक-एक, अओ-इससे, परं-आगे, भंगा-भंग ।। गाथार्थ-बाईस प्रकृतिक बन्धस्थान के छह, इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान के चार, सत्रह और तेरह प्रकृतिक बंधस्थान के दो-दो, नौ प्रकृतिक बंधस्थान के भी दो भंग हैं । इसके आगे पाँच प्रकृतिक आदि बंधस्थानों में से प्रत्येक का एक-एक भंग है। विशेषार्थ-इस गाथा में मोहनीय कर्म के बंधस्थानों में से प्रत्येक स्थान के यथासंभव बनने वाले भंगों की संख्या का निर्देश किया है। पूर्व में मोहनीय कर्म के बाईस, इक्कीस, सत्रह, तेरह, नौ, पाँच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक, इस प्रकार से दस बंधस्थान बतलाये हैं। उनमें से यहाँ प्रत्येक स्थान के होने वाले भंग-विकल्पों को बतलाते हुए सर्वप्रथम बाईस प्रकृतिक बंधस्थान के छह भंग बतलाये हैं-छब्बावीसे । अनन्तर क्रमश: इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान के चार भंग, सत्रह प्रकृतिक बंधस्थान के दो भंग, तेरह प्रकृतिक बंधस्थान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy