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पंचम कर्मग्रन्थ
इस प्रकार सिर्फ आहारक सप्तक अथवा सिर्फ तीर्थकर प्रकृति को सत्ता वाला पहले मिथ्यात्व गुणस्थान को भी प्राप्त कर सकता है। लेकिन जिसके आहारक सप्तक और तीर्थकर प्रकृति, दोनों का अस्तित्व है, उसके मिथ्यात्व गुणस्थान की प्राप्ति नहीं होने को स्पष्ट करते हैं कि 'नोभयसंते मिच्छे' उभय की सत्ता वाला जीव मिथ्यादृष्टि नहीं होता है । अर्थात् जिस जीव के आहारक व तीर्थंकर दोनों प्रकृति की सत्ता है, उसका पतन नहीं होने से मिथ्यात्व गुणस्थान में नहीं आता है। ___इस प्रकार ध्रुवसत्ताक और अध्रुवसत्ताक प्रकृतियों का निरूपण करने के साथ मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्व मोहनीय, अनन्तानुबंधी चतुष्क तथा तीर्थंकर व आहारक सप्तक इन पन्द्रह प्रकृतियों की गुणस्थानों में सत्ता का विचार किया गया। इनमें से आदि की सात अप्रशस्त और शेष आठ प्रशस्त प्रकृतियों में प्रधान हैं।
मिथ्यात्व आदि उक्त पन्द्रह प्रकृतियों की गुणस्थानों में सत्ता का कथन विशेष कारण से किया गया है। क्योंकि मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्व मोहनीय, अनन्तानुबंधी चतुष्क इन सात प्रकृतियों का जीव के उत्थान-पतन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। जब तक, इन प्रकृतियों की सत्ता रहती है तब तक जीव अपने लक्ष्य-मोक्ष के कारण सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं कर सकता है। इनके सद्भाव में जीव यथार्थ लक्ष्य को नहीं समझकर संसार में परिभ्रमण करता रहता है । लेकिन जब इन प्रकृतियों को निष्क्रिय, निस्सत्व बना डालता है तो संसार के बंधनों को तोड़कर अनन्त काल के लिये आत्मस्वरूप में स्थित हो जाता है। ___जैसे मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियाँ अप्रशस्त प्रकृतियों में मुख्य हैं वैसे ही आहारक सप्तक और तीर्थंकर नामकर्म ये आठ प्रकृतियाँ प्रशस्त प्रकृतियों में प्रधान हैं। क्योंकि आहारक सप्तक का बंध विरले ही तपस्वियों को होता है और तीर्थकर प्रकृति तो उनकी अपेक्षा भी
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