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पंचम कर्मग्रन्थ
(४) नामकर्म-वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, अगुरुलघु, निर्माण, उपघात ।
(५) अन्तराय-दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य-अंतराय ।
ऊपर बतायी गई प्रकृतियों के नामों से यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्म की सभी उत्तर प्रकृतियां जिनके क्रमशः पांच, नौ और पांच उत्तर भेद हैं, ध्र वबंधिनी हैं। मोहनीय कर्म के भेद दर्शनमोह की एक मिथ्यात्व तथा चारित्र मोह की अठारह प्रकृतियां और नामकर्म की नौ प्रकृतियां ध्रुवबन्धिनी हैं । इस प्रकार ज्ञानावरण की ५, दर्शनावरण की ६, मोहनीय की १६, नाम की और अंतराय की ५, कुल मिलाकर सैंतालीस प्रकृतियां ध्रुवबन्धिनी हैं। इन प्रकृतियों के ध्रुवबन्धिनी होने के कारण को गाथा में कहे गये क्रम के अनुसार स्पष्ट करते हैं। __वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तेजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण, उपघात, नामकर्म की इन नौ प्रकृतियों को ध्रुवबन्धिनी मानने का कारण यह है कि तैजस और कार्मण शरीर तो चारों गतियों के जीवों के अवश्य होते हैं, इनका अनादि से सम्बन्ध है।' एक भव का स्थूल शरीर छोड़कर भवांतर का अन्य शरीर ग्रहण करने की अन्तराल गति (विग्रह गति) में भी तैजस और कार्मण शरीर सदैव बना रहता है । औदारिक या वैक्रिय शरीरों में से किसी एक का बंध होने पर वर्ण, गंध, रस, स्पर्श नामकर्मों का अवश्य बंध होता है तथा औदारिक, वैक्रिय शरीर का बंध होने पर उनके योग्य पुद्गलों से उनका निर्माण होता है । अतः निर्माण नामकर्म का बंध भी अवश्यंभावी है । इन औदारिक और वैक्रिय शरीर के स्थूल होने से अन्य स्थूल पदार्थों से उपघात होता ही है। औदारिक या वैक्रिय शरीर अपनी योग्य वर्गणाओं को अधिक
१ अनादि संबंधे च । सर्वस्य । ।
-तत्वार्थसूत्र २१४२-४३
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