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शतक
वाले दारुण विपाक को बतलाने वाली होने से उनकी सदृशता को प्राप्त करती हैं, अतः उनको सर्वघाती प्रतिभाग प्रकृतियां कहते हैं।
(८) अघातिनी प्रकृति-जो प्रकृति आत्मिक गुणों का घात नहीं करती है, उसे अघातिनी प्रकृति कहते हैं।
(E) पुण्य प्रकृति-जिस प्रकृति का विपाक-फल शुभ होता है उसे पुण्य प्रकृति कहते हैं।
(१०) पाप प्रकृति-जिसका फल अशुभ होता है वह पाप प्रकृति है ।
(११) परावर्तमाना प्रकृति-किसी दूसरी प्रकृति के बन्ध, उदय अथवा दोनों को रोककर जिस प्रकृति का बंध, उदय अथवा दोनों होते हैं, उसे परावर्तमाना प्रकृति कहते हैं।
(१२) अपरावर्तमाना प्रकृति-किसी दूसरी प्रकृति के बंध, उदय अथवा दोनों को रोके बिना जिस प्रकृति के बंध, उदय अथवा दोनों होते हैं, उसे अपरावर्तमाना प्रकृति कहते हैं।'
(१३) क्षेत्रविपाको प्रकृति–एक गति का शरीर छोड़कर अर्थात् पूर्व गति में मरण होने के कारण उसके शरीर को छोड़कर नई गति का शरीर धारण करने के लिये जब जीव गमन करता है, उस समय विग्रहगति में जो कर्म प्रकृति उदय में आती है, अपने फल का अनुभव कराती है उसे क्षेत्रविपाकी प्रकृति कहते हैं । इस प्रकृति का उदय पूर्व गति को त्यागकर अन्य गति में जाते समय अन्तरालवर्ती काल में ही होता है, अन्य समय में नहीं। इसीलिये इसको क्षेत्रविपाकी प्रकृति कहते हैं।
(१४) जीवविपाको प्रकृति-जो प्रकृति जीव में ही अपना फल देती है, उसे जीवविपाकी प्रकृति कहते हैं। इस प्रकृति का विपाक जीव
१ विणिवारिय जा गच्छइ बंध उदयं व अन्न पगईए ।
साह परियत्तमाणी अणिवारेंति अपरियत्ता ॥ -पंचसंग्रह ३.४३
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