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________________ पंचम कर्मग्रन्थ में कारण रूप होती है और कोई सामग्री किसी के उदय में हेतु रूप होती है। लेकिन यह निश्चित है कि जहां एक भी उदय हेतु है, वहां अन्य सभी हेतु समूह रूप में उपस्थित रहते हैं।' (५) ध्रुवसत्ताक प्रकृति-अनादि मिथ्यात्वी जीव को जो प्रकृति निरंतर सत्ता में होती है, सर्वदा विद्यमान रहती है, उसे ध्रुवसत्ताक प्रकृति कहते हैं । (६) अध्रुवसत्ताक प्रकृति-मिथ्यात्व दशा में जिस प्रकृति की सत्ता का नियम नहीं यानी किसी समय सत्ता में हो और किसी समय सत्ता मैं न भी हो, उसे अध्रुवसत्ताक प्रकृति कहते हैं। ध्रुवसत्ताक प्रकृतियों की विच्छेद काल तक प्रत्येक समय प्रत्येक जीव को सत्ता होती है और अध्रुवसत्ताक प्रकृतियों के लिये यह नियम नहीं है कि विच्छेद काल तक प्रत्येक समय उनकी सत्ता हो। (७) घातिनी प्रकृति-जो कर्म प्रकृति आत्मिक गुणों-ज्ञानादि का घात करती है, उसे घातिनी प्रकृति कहते हैं। यह दो प्रकार की है सर्वघातिनी और देशघातिनी। जो कर्म प्रकृति ज्ञानादि रूप अपने विषय को सर्वथा प्रकार से घात करे उसे सर्वघातिनी और जो प्रकृति अपने विषय के एकदेश का घात करे उसे देशघातिनी प्रकृति कहते हैं । कर्मों की कुछ प्रकृतियां सर्घघाति प्रतिभाग रूप होती हैं अर्थात् अघाती होने से स्वयं में तो ज्ञानादि आत्मगुणों को दबाने की शक्ति नहीं है किन्तु सर्वघाती प्रकृतियों के संसर्ग से अपना अति दारुण विपाक बतलाती हैं। वे सर्वघाती प्रकृतियों के साथ वेदन किये जाने १ दव्वं खेत्त कालो भवो य भावो य हेयवो पंच । हेउ समासेणुदओ जायइ सव्वाण पगईणं ॥ -पंचसंग्रह ३॥३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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