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पचम कर्मग्रन्थ
अर्थात् क्षेत्रसमास की वृहद्वृत्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की वृत्ति का यह अभिप्राय है कि उत्तरकुरु के मनुष्य के केशान लेना चाहिये । किंतु प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति और संग्रहणी की वृहद्ववृत्ति में सामान्य से सिर मुड़ा देने पर एक से लेकर सात दिन तक के उगे हुए बालों का उल्लेख किया है, उत्तरकुरु के मनुष्य के बालानों का .ग्रहण नहीं किया है । क्षेत्रविचार की स्वोपज्ञवृत्ति में लिखा है कि देवकुरु-उत्तरकुरु में जन्मे सात दिन के मेष (मेड़) के उत्सेधांगुलप्रमाण रोम को लेकर उसके सात बार आठ-आठ खंड करना चाहिये । अर्थात् उस रोम के आठ खंड करके पुन: एक-एक खंड के आठ-आठ खंड करना चाहिए। ऐसा करने पर उस रोम के बीस लाख सत्तानवै हजार एकसौ बावन २०६७१५२ खंड होते हैं । इस प्रकार के खंडों से उस पल्य को भरना चाहिए ।
जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति में भी 'एगाहिअ वेहिअ तेहिअ उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं वालग्गकोडीणं' ही पाठ है। जिसका टीकाकार ने यह अर्थ किया है --- वालेषु अग्राणि श्रेष्ठाणि वालाग्राणि कुरुतररोमाणि तेषां कोटयः अनेकाः कोटीकोटीप्रमुखाः संख्याः । जिसका आशय है कि बालों में अग्र-श्रेष्ठ जो उत्तरकुरु-देवकुरु के मनुष्यों के बाल, उनकी कोटिकोटि । इस प्रकार टीकाकार ने बाल सामान्य से कुरुभूमि (देवकुम, उत्तरकुरु) के मनुष्यों के बालों का ग्रहण किया है।
दिगम्बर साहित्य में 'एकादिसप्ताहोरात्रिजाताविवालाग्राणि' लिखकर एक दिन से सात दिन तक जन्मे हुए मेष (भेड़) के बालाग्र ही ग्रहण किये हैं। दिगम्बर साहित्य में पल्योपम का वर्णन
उपमा प्रमाण के द्वारा काल की गणना करने के लिए पल्योपम, सागरोपम का उपयोग श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों संप्रदायों के साहित्य में समान रूप से किया गया है । लेकिन उनके वर्णन में भिन्नता है । श्वेताम्बर साहित्य में पाये जाने वाले पल्योपम के स्वरूप आदि का वर्णन गा० ८५ में किया जा चुका है, लेकिन दिगम्बर साहित्य में पल्योपम का जो वर्णन मिलता है, वह उक्त वर्णन से कुछ भिन्न है। उसमें क्षेत्र-पल्योपम नाम का कोई भेद नहीं है Jain Education International For Private & Personal Use Only
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