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________________ ४२८ परिशिष्ट-२ विक नहीं समझ लेना चाहिए । यानी यह नहीं समझ लेना चाहिए कि वेदनीय का द्रव्य मोहनीय से ठीक दुगना है, वैसे ही वास्तव में भी दुगना द्रव्य होता है । उक्त उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्मस्कन्धों के विभाजन में श्वेताम्बर और दिगम्बर कर्मसाहित्य में समानता है। कर्मग्रंथ में लाघव की दृष्टि से ही विभाग करने की रीति नहीं बतलाई जा सकी है। उत्तर प्रकृतियों में पुद्गल द्रव्य के वितरण व होनाधिकता का विवेचन __गो० कर्मकांड में गाथा १६६ से २०६ तक उत्तर प्रकृतियों में पुद्गल द्रव्य के विभाजन का वर्णन किया गया है । कर्मग्रन्थ के समान ही घातिकर्मों को जो भाग मिलता है, उसमें से अनन्तवां भाग सर्वघाती द्रव्य होता है और शेष बहुभाग देशघाती द्रव्य होता है सव्वावरणं दव्वं अणंतभागो दु मूलपयडीणं । सेसा अणंतभागा देसावरणं हवे दव्वं ॥ १६७ गो० कर्मकांड के मत से सर्वघाती द्रव्य सर्वघाती प्रकृतियों को भी मिलता है और देशघाती प्रकृतियों को भी मिलता है सव्वावरणं दव्वं विभंजणिज्जं तु उभयपयडीसु । देसावरणं दव्वं वेसावरणेसु णेविदरे ॥ १६६ सर्वघाती द्रव्य का विभाग दोनों तरह की प्रकृतियों में करना चाहिए । किन्तु देशघाती द्रव्य का विभाग देशघाती प्रकृतियों में ही करना चाहिए । अर्थात् सर्वघाती द्रव्य सर्वघाती और देशघाती दोनों प्रकार की प्रकृतियों को मिलता है किन्तु देशघाती द्रव्य सिर्फ देशघाती प्रकृतियों में ही विभाजित होता है। प्राप्त द्रव्य को उत्तर प्रकृतियों में विभाजित करने के लिए एक सामान्य नियम यह है कि उत्तरपयडीसु पुणो मोहावरणा हवंति होणकमा। अहियकमा पुण णामाविग्धा य ण भंजगं सेसे ॥ १९६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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