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________________ परिशिष्ट-२ =१२ और नौ का बंध करने पर ६ x १ =६, इस प्रकार १२+१२+६= ३० भंग होते हैं। दूसरे गुणस्थान में एक भी अल्पतर बंध नहीं होता है, क्योंकि दूसरे के बाद पहला ही गुणस्थान होता है और उस अवस्था में इक्कीस का बंध करके बाईस का बंध करता है जो कि भुजाकार बंध है। तीसरे गुणस्थान में भी कोई अल्पतर नहीं होता है, क्योंकि तीसरे से पहले गुणस्थान में आने पर भजाकार बंध होता है और चौथे में जाने पर अवस्थित बंध होता है। क्योंकि तीसरे में भी सत्रह का बधस्थान है और चौथे में भी सत्रह का बंध होता है। चौथे में छह अल्पतर होते हैं, क्योंकि सत्रह का बंध करके तेरह का बंध करने पर २ x २=४ और नौ का बंध करने पर २४१=२, इस प्रकार ४+-२= ६ अल्पतर बंध होते हैं । पांचवें गुणस्थान में तेरह का बंध करके सातवें में जाने पर नौ का बंध करता है अतः वहाँ २४१-२ अल्पतर बंध होते हैं। छठे गुणस्थान में भी दो अल्पतर होते हैं, क्योंकि छठे से नीचे के गुणस्थानों में आने पर तो मजाकार बंध ही होता है किन्तु ऊपर सातवें में जाने पर दो अल्पतर बंध होते हैं । यद्यपि छठे और सातवें गणस्थान में नौ-नौ प्रकृतियों का ही बंध होता है किन्तु छठे के नौ प्रकृतियों वाले बंधस्थान में दो भंग होते हैं, क्यों यहाँ दोनों युगल का बंध संभव है और सातवें के नौ प्रकृतिक बंधस्थान का एक ही भंग होता है, क्योंकि वहाँ एक ही युगल का बंध होता है । जिससे प्रकृ तियों की संख्या बराबर होने पर भी मंगों को न्यूनाधिकता के कारण २४१ --२ अल्पतर बंध माने गये हैं । सातवें गूणस्थान में एक भी अल्पतर बंध नहीं होता है, क्योंकि जब जीव सात से आठवें गुणस्थान में जाता है तो वहाँ भी नौ प्रकृतियों का ही बंध करता है, कम का नहीं करता है । आठवें में नौ का बंध करके नौवें गुणस्थान में पांच का बंध करने पर १x१=१ ही अल्पतर बंध होता है। नौवें गुणस्थान में पांच का बंध करके चार का बंध करने पर एक, चार का बंध करके तीन का बंध करने पर एक, तीन का बंध करके दो का बंध करने पर एक और दो का बंध करके एक का बंध करने पर एक, इस प्रकार चार अल्पतर बंध होते हैं । इस प्रकार पैंतालीस अल्पतर बंध समझना चाहिए । अवक्तव्य बंध इस प्रकार हैं--- भेदेण अवत्तव्या ओवरमाणम्मि एक्कयं मरणे । वो चेन होंति एत्यवि तिण्णेष अवद्विदा भंगा ॥ ४७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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