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परिशिष्ट-२
विशेषपने से अर्थात् मंगों की अपेक्षा से एकसौ सत्ताईस भुजाकार होते हैं, पैंतालीस अल्पतर होते हैं और एकसौ पचहत्तर अवक्तव्य बंध होते हैं ।
एक ही बंधस्थान में प्रकृतियों के परिवर्तन से जो विकल्प होते हैं, उन्हें भंग कहते हैं। जैसे बाईस प्रकृतिक बंधस्थानों में तीन वेदों में से एक वेद का और हास्य-रति और शोक-अरति के युगलों में से एक युगल का बंध होता है । अतः उसके ३-२=६भंग होते हैं । अर्थात् बाईस प्रकृतिक बंधस्थान को कोई जीव हास्य, रति और पुरुषवेद के साथ बांधता है, कोई शोक, अरति और पुरुषवेद के साथ बांधता है। कोई हास्य, रति और स्त्रीवेद के साथ बांधता है, कोई शोक, अरति और स्त्रीवेद के साथ बांधता है । इसी तरह नपुंसक वेद के लिये भी समझना चाहिये। इस प्रकार बाईस प्रकृतिक बंधस्थान भिन्न-भिन्न जीवों के छह प्रकार से होता है। इसी प्रकार इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान में चार भंग होते हैं, क्योंकि उसमें एक जीव के एक समय में दो वेदों में से किसी एक वेद का और दो युगलों में से किसी एक युगल का बंध होता है। इसका सारांश यह है कि अपने-अपने बंधस्थान में संभवित वेदों को और युगलों को परस्पर में गुणा करने पर अपने-अपने बंधस्थान के भंग होते हैं। उन भंगस्थानों की संख्या इस प्रकार है
छब्बावीसे चदु इगिवीसे दो हो हवंति छटो ति ।
एक्केक्कमदो भंगो बंधट्ठाणेसु मोहस्स ॥४६७ मोहनीय कर्म के बंधस्थानों में से बाईस के छह, इक्कीस के चार, इसके आगे प्रमत्त गुणस्थान तक संभावित बंधस्थानों के दो-दो और उसके आगे संभवित बंधस्थानों के एक-एक भंग होते हैं। इन भंगों की अपेक्षा से एकसौ सत्ताईस भुजाकार निम्न प्रकार हैं
णम चउवीसं बारस वीसं चउरढवीस दो दो य ।
थूले पणगादोणं तियतिय मिच्छादिभुजगारा ॥४७२ पहले गुणस्थान में एक भी भुजाकार बंध नहीं होता है क्योंकि बाईस प्रकृतिक बंधस्थान से अधिक प्रकृतियों वाला कोई बंधस्थान ही नहीं है, जिसके बांधने से यहाँ भुजाकार बंध संभव हो । दूसरे गुणस्थान में चौबीस भुजाकार होते हैं, क्योंकि इक्कीस को बांधकर बाईस का बंध करने पर इक्कीस के चार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org