SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 460
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम कर्मग्रन्थ ४१३ बंध करके तेरह और नो का बंध कर सकने के कारण सत्रह के बंधस्थान के दो अल्पतर बंध होते हैं । इस प्रकार बाईस के तीन और सत्रह के दो अल्पतर बंधों में से कर्मग्रन्थ में केवल एक-एक ही अल्पतर बंध बतलाया है । अतः शेष तीन रहते हैं जो कर्मग्रन्थ से कर्मकांड में अधिक है। भ्यस्कार, अल्पतर और अवक्तव्य बंध के द्वितीय समय में भी यदि उतनी ही प्रकृतियों का बंध होता है जितनी प्रकृतियों का बंध पहले समय में हुआ था तो उसे अवस्थित बंध कहते हैं । अतः कर्मकांड में भ्यस्कार, अल्पतर और अवक्तव्य बंधों की संख्या के बराबर ही अवस्थित बंधों की संख्या बतलाई है । यदि दूसरे समय में होने वाले बंध के ऊपर से भूयस्कार, अल्पतर अथवा अवक्तव्य पदों को अलग करके उनकी वास्तविक स्थिति को देखें तो मूल अवस्थित बंध उतने ही ठहर सकते हैं जितने बंधस्थान होते हैं । जैसे किसी जीव ने इक्कीस का बध करके प्रथम समय में बाईस का बन्ध किया और दूसरे समय में भी बाईस का ही बंध किया तो यहां प्रथम समय का बंध भूयस्कार बन्ध है और दूसरे समय का अवस्थित । जिस प्रकार भूयस्कार आदि बंधों का निरूपण है, यदि उसी प्रकार अवस्थित बंध का निरूपण किया जाये तो बाईस का बंध करके बाईस का बंध करना, इक्कीस का बंध करके इक्कीस का बंध करना, सत्रह का बंध करके सत्रह का बंध करना, आदि अवस्थित बंध ही है। इसका सारांश यह है कि मूल अवस्थित बंध उतने ही होते हैं जितने कि बंधस्थान होते हैं, इसीलिये कर्म ग्रन्थ में दस ही अवस्थित बंध मोहनीय कर्म के बतलाये हैं । किंतु भूयस्कार, अल्पतर और अवक्तव्य बंध के द्वितीय समय में प्रायः अवस्थित बन्ध होता है, अतः इन उपपद पूर्वक होने वाले अवस्थित बंध भी उतने ही होते है जितने कि तीनों बंधों के होते हैं । इसी से कर्मकांड में उक्त तीनों प्रकार के बंधों के बराबर ही अवस्थित बंध का परिमाण बतलाया है । अवक्तव्य बंध कर्मग्रन्थ और गो० कर्मकांड में समान हैं । गो० कर्मकांड में विशेषरूप से भी भयस्कार आदि को गिनाया है, जिनकी संख्या निम्न प्रकार है सत्तावीसहियसयं पणदालं पंचहत्तरिहियसयं । भुजगारप्पदराणि य अविवाणिवि विसेसेण ॥४७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy