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________________ ३८४ शतक तत्तो य दसणतिगं तओऽणुइण्णं जहन्नयरवेयं । . ततो वीयं छक्कं तओ य वेयं सयमुदिन्नं ॥ अर्थात् अनन्तानुबंधी की उपशमना के पश्चात् दर्शनत्रिक का उपशम करता है, उसके बाद अनुदीर्ण दो वेदों में से जो वेद हीन होता है, उसका उपशम करता है। उसके बाद दूसरे वेद का उपशम करता है। उसके बाद हास्यादि षट्क का उपशम करता है और तत्पश्चात जिस वेद का उदय होता है, उसका उपशम करता है । - कर्मप्रकृति उपशमनाकरण गा० ६५ में इस क्रम को इस प्रकार वतलाया है कि-- उदयं वज्जिय इत्थी इत्थिं समयइ अवयमा सत्त । तह वरिसबरो बरिसवरित्थिं समगं कमारद्धे ।। (यदि स्त्री उपशमश्रोणि.पर चढ़ती है तो पहले नपुंसकवेद का उपशम करती है, उसके बाद चरम समय मात्र उदय स्थिति को छोड़कर स्त्रीवेद के शेष सभी दलिकों का उपशम करती है । उसके बाद अवेदक होने पर पुरुषवेद आदि सात प्रकृतियों का उपशम करती है । यदि नपुंसक उपशम श्रोणि पर चढ़ता है तो एक उदय स्थिति को छोड़कर शेष नपुंसक वेद का तथा स्त्रीवेद का एक साथ उपशम करता है । उसके बाद अवेदक होने पर पुरुषवेद आदि सात प्रकृतियों का उपशम करता है। उपशम श्रेणि का आरंभक सप्तम गुणस्थानवर्ती जीव है और अनंतानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व का उपशम करने पर सातवां गुणस्थान होता है। क्योंकि इनके उदय होते हुए सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति नहीं हो सकती है। १ लब्धिसार में भी कर्म प्रकृति के अनुरूप ही विधान किया गया है । देखो गाथा ३६१,३६२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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