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________________ ३७२ शतक वहां से गिरे तो दूसरे और उससे पहले गुणस्थान को भी प्राप्त करता है। उपशमणि के दो भाग हैं--(१) उपशम भाव का सम्यक्त्व और (२) उपशम भाव का चारित्र । इनमें से चारित्र मोहनीय का उपशमन करने के पहले उपशम भाव का सम्यक्त्व सातवें गुणस्थान में ही प्राप्त होता है। क्योंकि दर्शन मोहनीय की सातों प्रकृतियों को सातवें में ही उपशमित किया जाता है, जिससे उपशमश्रोणि का प्रस्थापक अप्रमत्त संयत ही है। किन्हीं-किन्हीं आचार्यों का मंतव्य है कि अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्त या अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती कोई भी अनंतानुबंधी कपाय का उपशमन करता है और दर्शनत्रिक आदि को तो संयम में वर्तने वाला अप्रमत्त ही उपशमित करता है । उसमें सबसे पहले अनंतानुबंधी कपाय को उपशान्त किया जाता हैं और दर्शनत्रिक का उपशमन तो संयमी ही करता है । इस अभिप्राय के अनुसार चौथे गुणस्थान से उपशम श्रोणि का प्रारम्भ माना जा सकता है। ___ अनंतानुबंधी कषाय के उपशमन का वर्णन इस प्रकार है कि चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक में से किसी एक गुणस्थानवी जीव अनंतानुबंधी कषाय का उपशमन करने के लिये यथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक तीन करण करता है । यथाप्रवृत्तकरण में प्रतिसमय उत्तरोत्तर अनंतगुणी विशुद्धि होती है । जिसके कारण शुभ प्रकृतियों में अनुभाग की वृद्धि और अशुभ प्रकृतियों में अनुभाग की हानि होती है। किन्तु स्थितिघात, रसघात, गुणश्रोणि या गुणसंक्रम नहीं होता है, क्योंकि यहां उनके योग्य विशुद्ध परिणाम नहीं होते हैं। यथाप्रवृत्तकरण का काल अन्तमुहूर्त है। उक्त अन्तमुहूर्त काल समाप्त होने पर दूसरा अपूर्वकरण होता है। इस करण में स्थितिघान, रसघात, गुणश्रेणि, गुणसंक्रम और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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