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________________ पंचम कर्मग्रन्थ ३७१ उपशमश्रेणि अणदंसनपुसित्थीवेयछक्कं च पुरिसवेयं च । दो दो एगंतरिए सरिसे सरिसं उसमेइ ॥८ शब्दार्थ-अणवंसनपुसित्योवेय-- अनंतानुबंधी कषाय, दर्शनमोहनीय, नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, छक्क-हास्यादि षट्क, च-तथा, पुरिसवेयं --पुरुष वेद, च -और, दो दो-दो दो, एगंतरिए-एक एक के अन्तर से, सरिसे सरिसं-सदृश एक जैसी, उवसमेइ-उपशमित करता है। ___ गाथार्थ-(उपशमश्रेणि करने वाला) पहले अनंतानुबंधी कषाय का उपशम करता है, अनन्तर दर्शन मोहनीय का और उसके पश्चात् क्रमशः नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, हास्यादि षट्क व पुरुषवेद और उससे बाद एक-एक (संज्वलन) कषाय का अन्तर देकर दो-दो सदृश कषायों का एक साथ उपशम करता है। विशेषार्थ-आठवें गुणस्थान से दो श्रेणियां प्रारंभ होती हैंउपशमणि और क्षपकश्रोणि । ग्रंथकार ने गाथा में उपशमश्रोणि का स्वरूप स्पष्ट किया है कि उपशमश्रोणि के आरोहक द्वारा किस प्रकार प्रकृतियों का उपशम किया जाता है। संक्षेप में उपशमश्रोणि का स्वरूप इस प्रकार है कि जिन परिणामों के द्वारा आत्मा मोहनीय कर्म का सर्वथा उपशमन करता है, ऐसे उत्तरोत्तर वृद्धिंगत परिणामों की धारा को उपशमश्रोणि कहते हैं । इस उपशमश्रेणि का प्रारम्भक अप्रमत्त संयत ही होता है और उपशमश्रोणि से गिरने वाला अप्रमत्त संयत, प्रमत्त संयत, देशविरति या अविरति में से भी कोई हो सकता है । अर्थात् गिरने वाला अनुक्रम से चौथे गुणस्थान तक आता है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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