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लोक का स्वरूप समझने के पश्चात यह जिज्ञासा होती है कि इस लोक की स्थिति का आधार क्या है ? वर्तमान के वैज्ञानिकों ने भी लोक के आधार को जानने के लिये प्रयास किया है, लेकिन ससीम ज्ञान के द्वारा इस असीम लोक की स्थिति का सम्यग् बोध होना सम्भव नहीं है । यन्त्रों के द्वारा होने वाले ज्ञान की अपेक्षा आध्यात्मिक दृष्टि अत्यन्त विश्वसनीय एवं प्रमाणिक होती है | अतः यहां सर्वज्ञ भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित लोकस्थिति के आधार को बतलाते हैं । उन्होंने लोक की स्थिति आठ प्रकार से प्रतिपादित की है
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शतक
(१) वात- तनुवात आकाश प्रतिष्ठित है, (२) उदधि -- घनोदधिवात प्रतिष्ठित है, (३) पृथ्वी - उदधि प्रतिष्ठित है, (४) त्रस और स्थावर प्राणी पृथ्वी प्रतिष्ठित हैं, (५) अजीव जीव प्रतिष्ठित है, (६) जीव कर्म प्रतिष्ठित है, (७) अजीव जीव से संगृहीत है, (८) जीव कर्म से संगृहीत है । '
उक्त कथन का सारांश यह है कि वस, स्थावर आदि प्राणियों का आधार पृथ्वी है, पृथ्वी का आधार उदधि है, उदधि का आधार वायु है और वायु का आंधार आकाश है। यानी जीव, अजीव आदि सभी पदार्थ पृथ्वी पर रहते हैं और पृथ्वी वायु के आधार पर तथा वायु आकाश के आधार पर टिकी हुई है ।
पृथ्वी को वाताधारित कहने का स्पष्टीकरण यह है कि पृथ्वी का पाया घनोंदधि पर आधारित है । घनोदधि जलजातीय है और जमे हुए घी के समान इसका रूप है । इसकी मोटाई नीचे मध्य में बीस हजार योजन की है । घनोदधि के नीचे घनवायु का आवरण है, यानी
१. भगवती १।६
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