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पंचम कर्मग्रन्थ
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है, किन्तु यह तो केवल उसकी ऊंचाई का ही प्रमाण बतलाया है। अतः यहां लोक का स्वरूप स्पष्ट करते हैं।
(सभी प्रकार के पदार्थ-जड़ या चेतन, दृश्यमान या अदृश्यमान, सूक्ष्म या स्थूल, स्थावर या जंगम आदि -जहां देखे जाते हैं अथवा जीव जहां अपने सुख-दुःख रूप पुण्य-पाप के फल आवेदन करते है। उसे लोक कहते हैं। इन पदार्थों में होने वाली प्रत्येक क्रिया अथवा इन पदार्थों द्वारा की जाने वाली प्रत्येक क्रिया का आधार यह लोक ही है । ये सभी पदार्थ अवस्था से अवस्थान्तर होते हुए भी अपने मूल गुण, धर्म, स्वभाव का परित्याग नहीं करते हैं । ऐसा कभी नहीं होता कि जड़ चेतन हो गया हो अथवा चेतन जड़, मूर्त अमूर्त हो गया हो अथवा अमूर्त मूर्त । सभी पदार्थ अपने अस्तित्व और अभिव्यक्ति के स्वयं कारण हैं और उनका अपना-अपना कार्य है । इसीलिये इन सब दृष्टियों को ध्यान में रखते हुए शास्त्रों में लोक का स्वरूप बतलाया है कि धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव, यह द्रव्य जहां पाये जाते हैं उसे लोक कहते हैं । अर्थात् धर्म आदि षड् द्रव्यों का समूह लोक है। लोक का ऐसा कोई हिस्सा नहीं, जहां ये छह द्रव्य न पाये जाते हों।
(धर्म आदि उक्त छह द्रव्यों में से आकाश सर्वत्र व्यापक है, जबकि अन्य द्रव्य उसके व्याप्य हैं । अर्थात् आकाश धर्म आदि शेष पांच द्रव्यों के साथ भी रहता है और उनके सिवाय उनसे बाहर भी रहता है । वह अनन्त है अर्थात् उसका अन्त नहीं है । अतः आकाश के जितने . भाग में धर्मादि छह द्रव्य रहते हैं, उसे लोक कहते हैं और उसके अतिरिक्त शेष अनन्त आकाश अलोक कहलाता है। यह लोक ध्रुव है, नित्य है, अक्षय, अव्यय एवं अवस्थित है, न तो इसका कभी नाश होता है और न कभी नया उत्पन्न होता है।
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