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बाद अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है । उत्कृष्ट योग होने पर पुनः उत्कृष्ट
बन्ध होता है ।
इस प्रकार उत्कृष्ट के बाद अनुत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट के बाद उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होने का क्रम चलता रहता है। इसी कारण यह दोनों बन्ध सादि और अध्रुव होते हैं तथा इन प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव भव के प्रथम समय में करता है । दूसरे, तीसरे आदि समयों में वही जीव उनका अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है और कालान्तर में वही जीव पुनः उनका जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इस प्रकार ये दोनों बन्ध भी सादि और अध्रुव होते हैं ।
वर्णचतुष्क, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, उपघात और निर्माण प्रकृति के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी इसी प्रकार सादि और अध्रुव समझना चाहिये। इन नौ प्रकृतियों का उत्कृष्ट बंध मिथ्यात्वी उत्कृष्ट योग वाला नामकर्म के तेईस प्रकृतिक बन्धस्थान का बन्ध करने वाला करता है ।
शतक
इस प्रकार उत्तर प्रकृतियों के उत्कृष्ट आदि चार बंधों में सादि वगैरह भंगों का स्वरूप जानना चाहिये । अब मूल प्रकृतियों के भंगों का विचार करते हैं ।
मूल प्रकृतियों में से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम, गोत्र और अंतराय के अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध के सादि वगैरह चारों विकल्प होते हैं । जो इस प्रकार हैं कि इन छह का उत्कृष्ट प्रदेशबंध क्षपक अथवा उपशमक सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान में करता है । अनन्तर जव पुनः उनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है तो वह बंध सादि है । उत्कृष्ट प्रदेशबंध से पहले वह बंध अनादि है, भव्य का बंध अध्रुव है तथा अभव्य का बंध ध्रुव है । शेष जघन्य, अजघन्य और उत्कृष्ट प्रदेश
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