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________________ पंचम कर्मग्रन्थ ३५१ इस प्रकार से उक्त तीस प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के सादि आदि चार भंग होते हैं। किन्तु बाकी के उत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध के सादि और अध्रुव यह दो ही विकल्प होते हैं । वे इस प्रकार हैं__ अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध के भंगों को बतलाते समय यह स्पष्ट किया गया है कि अमुक गुणस्थान में उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है । यह उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अपने-अपने गुणस्थानों में पहली बार होता है, अतः वह सादि है और एक, दो समय होने के बाद या तो उस बन्ध का बिल्कुल अभाव हो जाता है या पुनः अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होने लगता है, जिससे वह अध्रुव है तथा उक्त तीस प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव के भव के प्रथम समय में होता है और उसके बाद योगशक्ति में वृद्धि होने के कारण उनका अजघन्य प्रदेशबन्ध होता है । संख्यात या असंख्यात काल के बाद जब उस जीव को पुनः उस भव की प्राप्ति होती है तो पुनः जघन्य प्रदेशबन्ध होता है और उसके बाद पुनः अजघन्य प्रदेशबन्ध होता है । इस प्रकार जघन्य के बाद अजघन्य और अजघन्य के बाद जघन्य प्रदेशबन्ध होने के कारण दोनों ही बन्ध सादि और अध्रुव होते हैं । तीस प्रकृतियों के भंगों का विचार कर लेने के बाद अब शेष रही ६० प्रकृतियों के भंगों का विचार करते हैं। इनके चारों बन्ध सादि और अध्रुव होते हैं। ६० प्रकृतियों में से ७३ प्रकृतियां अध्रुवबन्धिनी हैं अतः उनके तो चारों ही बन्ध सादि और अध्रुव होंगे ही और शेष रही सत्रह ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में से स्त्याद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धो का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध मिथ्यादृष्टि करता है। उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध का कारण उत्कृष्ट योग है जो एक दो समय तक ठहरता है। जिससे उत्कृष्ट बन्ध एक दो समय तक ही होता है और उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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