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________________ १३४ যুবক लाने के बाद अब सामान्य से उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशबंध के स्वामी बतलाते हैं। अप्पयरपडिबंधी उक्कडजोगी य सन्निपज्जत्तो। कुणइ पएसुक्कोसं जहन्नयं तस्स वच्चासे ॥८६॥ शब्दार्थ-अप्पयरपयडिबंधी-अल्पतर प्रकृतियों का बंध करने वाला, उक्कडजोगी-उत्कृष्ट योग का धारक, य--और, सनिपज्जत्तो- संज्ञी पर्याप्त, कुणइ-करता है, पएसुक्कोसं-प्रदेशों का उत्कृष्ट बंध, जहन्नयं-जघन्य प्रदेशबंध, तस्स-उसका, बच्चासे-विपरीतता से। गाथार्थ-अल्पतर प्रकृतियों का बंध करने वाला उत्कृष्ट योग का धारक और पर्याप्त संज्ञी जीव उत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है तथा इसके विपरीत अर्थात् बहुत प्रकृतियों का बंध करने वाला जघन्य योग का धारक अपर्याप्त असंज्ञी जीव जघन्य प्रदेशबंध करता है। विशेषार्थ--इस गाथा में उत्कृष्ट प्रदेशबंध और जघन्य प्रदेशबंध करने वाले का कथन किया गया है। जो मूल और उत्तर प्रकृतियां अल्प बांधे वह उत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है । क्योंकि कर्मप्रकृतियों के अल्प होने से प्रत्येक प्रकृति को अधिक प्रदेश मिलते हैं । इसीलिये अल्पतर प्रकृति का बंधक और उत्कृष्ट योग का धारक ऐसा संज्ञी पर्याप्त जीव उत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है और इससे विपरीत स्थिति में यानी अधिक प्रकृतियों को बांधने वालों के कर्मदलिकों को अधिक भागों में (प्रकृतियों में) विभाजित हो जाने से प्रत्येक को अल्प प्रदेश मिलते हैं । इसीलिये अधिक प्रकृतियों का बंधक और मंद योग वाला असंज्ञी अपर्याप्त जीव जघन्य प्रदेशबंध करता है। इसका स्पष्टीकरण नीचे लिखे अनुसार है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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