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________________ ३३२ शतक प्रकार क्रमवार अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के सब समय में जब मरण कर चुकता है तो उसे सूक्ष्म कालपुद्गल परावर्त कहते हैं । क्षेत्र की तरह ही यहां भी समयों की गणना क्रमवार करना चाहिये, अक्रमवार की गणना नहीं करना चाहिये । इसका अर्थ यह हुआ कि कोई जीव अवसर्पिणी के प्रथम समय में मरा, उसके बाद एक समय कम बीस कोडाकोड़ी सागरोपम के बीत जाने के बाद पुनः अवसर्पिणी काल के प्रारम्भ होने पर उसके दूसरे समय में मरे तो वह द्वितीय समय गणना में लिया जाता है । मध्य के शेष समयों में उसकी मृत्यु होने पर भी वे गणना में नहीं लिये जाते हैं । यदि वह जीव उक्त अवसर्पिणी के द्वितीय समय में मरण को प्राप्त न हो किन्तु अन्य समयों में मरण करे तो उनका भी ग्रहण नहीं किया जाता है किन्तु अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के बीत जाने पर जब भी अवसर्पिणी के दूसरे समय में ही मरता है तब वह काल ग्रहण किया जाता है । इसी प्रकार तीसरे, चौथे, पांचवें आदि समयों के बारे में भी समझना चाहिये कि जितने समयों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के समस्त समयों में क्रम से मरण कर चुकता है, उस काल को सूक्ष्म कालपुद्गल परावर्त कहते हैं। भावपुद्गल परावर्त-अनुभागबंधस्थान-कषायस्थान तरतम भेद को लिये असंख्यातं लोकाकाश के प्रदेशों की संख्या के बराबर हैं अर्थात् उनकी संख्या असंख्यात है। उन अनुभागबंधस्थानों में से एक-एक अनुभागबंधस्थान में क्रम से या अक्रम से मरण करते-करते जीव जितने समय में समस्त अनुभागबंधस्थानों में मरण कर चुकता है, उतने समय को बादर भावपुद्गल परावर्त कहते हैं और सबसे जघन्य अनुभागबंधस्थान में वर्तमान कोई जीव मरा, उसके बाद उस स्थान के अनन्तरवर्ती दूसरे अनुभागबंधस्थान में मरा, उसके बाद उसके अनन्तरवर्ती तीसरे आदि अनुभागबंधस्थानों में मरा आदि । इस प्रकार क्रम से जब समस्त अनुभागबंधस्थानों में मरण कर लेता है तो वह सूक्ष्मभावपुद्गल परावर्त कहलाता है । : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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