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________________ पंचम कर्मग्रन्थ ३०५ काल तक असंख्यात गुणित क्रम से जो दलिकों की स्थापना की जाती है, उसे गुणश्र ेणि कहते हैं । सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय जीव इस प्रकार की गुणश्र ेणि रचना करता है । गुणश्र णि उदय समय से होती हैं और ऊपर-ऊपर 'असंख्यात गुणे दलिकस्थापित किये जाते हैं । अतः गुणश्र ेणि करने वाला जीव ज्यों-ज्यों ऊपर की ओर चढ़ता है त्यों-त्यों प्रति समय असंख्यातगुणी, असंख्यातगुणी निर्जरा करता जाता है । इसका कारण यह है कि जिस क्रम से दलिक स्थापित होते हैं उसी क्रम से वे प्रतिसमय उदय में आते हैं, वे असंख्यात गुणित क्रम से स्थापित किये जाते हैं और उसी क्रम से उदय में आते हैं, जिससे सम्यक्त्व में असंख्यातगुणो निर्जरा होती है । सम्यक्त्व की प्राप्ति के बाद देशविरति और सर्वविरति की प्राप्ति के लिये जीव यथाप्रवृत्त और अपूर्वकरण ही करता है, तीसरा अनिवृत्तिकरण नहीं करता और अपूर्वकरण में यहां गुणश्र ेणि रचना भी नहीं होती है और अपूर्वकरण का काल समाप्त होने पर निश्चित ही देशविरति या सर्वविरति की प्राप्ति हो जाती है। जिससे अनिवृत्तिकरण की आवश्यकता नहीं रहती है । उक्त दोनों करण - यथाप्रवृत्त, अपूर्वकरण यदि अविरत दशा में किये जाते हैं तब तो देशविरति या सर्वविरति की प्राप्ति होती है और यदि देशविरति दशा में किये जाते हैं तो सर्वविरति ही प्राप्त होती है । देशविरति अथवा सर्वविरति की प्राप्ति होने पर जीव उदयाबलि के ऊपर गुणश्र ेणि की रचना करता है। जो प्रकृतियाँ उदयवती होती हैं, उनमें तो उदय क्षण से लेकर ही गुणश्र ेणि होती है किन्तु अनुदयवती प्रकृतियों में उदयावलिका के ऊपर के समय से लेकर गुणश्र ेणि होती है । पाँचवें गुणस्थान में अप्रत्याख्यानाबरण और छठे गुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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