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सबसे अधिक वेदनीय कर्म का भाग है । क्योंकि थोड़े द्रव्य के होने पर वेदनीय कर्म का अनुभव स्पष्ट रीति से नहीं हो सकता है | वेदनीय के अलावा शेष सातों कर्मों को अपनीअपनी स्थिति के अनुसार भाग मिलता है ।
शतक
विशेषार्थ इस गाथा में जीव द्वारा ग्रहण किये गये कर्म स्कन्धों का ज्ञानावरण आदि प्रकृतियों में विभाजित होने को बतलाया है ।
जिस प्रकार भोजन के पेट में जाने के बाद कालक्रम से वह रस, रुधिर आदि रूप हो जाता है, उसी प्रकार जीव द्वारा प्रति समय ग्रहण की जा रही कर्मवर्गणायें भी उसी समय उतने हिस्सों में बंट जाती हैं जितने कर्मों का बंध उस समय उस जीव ने किया है ।
पूर्व में यह बतलाया जा चुका है कि प्रति समय जीव द्वारा कर्मस्कन्धों का ग्रहण होता रहता है, लेकिन यह भी स्पष्ट किया है कि आयुकर्म का बंध सर्वदा न होकर भुज्यमान आयु के विभाग में होता है तथा वह भी अन्तर्मुहूर्त तक होता है । इन त्रिभागों में भी बंध न हो तो अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहने पर अवश्य भी परभव की आयु का बंध हो जाता है । अतः जिस समय जीव आयुकर्म का बंध करता है उस समय तो ग्रहण किये जाने वाले कर्मस्कन्ध आयुकर्म सहित ज्ञानावरण आदि आठों कर्मों में विभाजित हो जाते हैं यानी उनके आठ भाग हो जाते हैं और जिस समय आयु का बंध नहीं होता है, उस समय ग्रहण किये गये कर्मस्कन्ध आयुकर्म को छोड़कर शेष ज्ञानावरण आदि सात कर्मों में विभाजित होते हैं ।
यह तो हुआ एक सामान्य नियम । लेकिन गुणस्थानक्रमारोहण के समय जब जीव दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है तब आयु और मोहनीय कर्म के सिवाय शेष छह कर्मों का बंध करता है । अतः उस समय गृहीत कर्मस्कन्ध सिर्फ छह कर्मों में ही विभाजित
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