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________________ पंचम कर्मग्रन्थ २८५ ऐसा नहीं होता है कि आत्मा के अमुक हिस्से से ही कर्मों का ग्रहण किया जाता हो। इसी बात को बतलाने के लिए गाथा में कहा हैनियसव्वपएसउ गहेइ जिउ-यानी जीव अपने अमुक हिस्से द्वारा ही किसी निश्चित क्षेत्र में स्थिति कर्मस्कन्धों का ग्रहण नहीं करके समस्त आत्म-प्रदेशों द्वारा कर्मों का ग्रहण करता है। इस प्रकार से जीव के द्वारा ग्रहण किये जाने वाले कर्मस्कन्धों का स्वरूप और उनके ग्रहण करने की प्रक्रिया आदि का कथन करने के पश्चात अब आगे यह स्पष्ट करते हैं कि जीव द्वारा ग्रहण किये गये कर्मस्कन्धों का किस क्रम से विभाग होता है । थेवो आउ तदसो नामे गोए समो अहिउ ।।७।। विग्यावरणे मोहे सवोवरि वेयणोय जेणप्पे । तस्स फुडतं न हवइ ठिईविसेसेण सेसाणं ।।८०॥ शब्दार्थ-थेवो-सबसे अल्प, आउ -- आयुकर्म का, तसो--उसका अंश नामे - नामकर्म का, गोए -- गोत्रकर्म का, समो- समान, अहिउ-- विशेषाधिक, विग्यावरणे - अन्त राय और आव रणद्विक का, मोहे- मोह का, सवोवरि -- सबसे अधिक, वेयणीय-वेदनीय कर्म का, जेण जिस कारण से, अप्पे -- अल्पद लिक होने पर, तस्स - उसका (वेदनीय का), फुडत्त - स्पष्ट रीति से अनुभव, न हवइ- नहीं होता है, ठिईविसेसेण - स्थिति की अपेक्षा से, सेसाणं--- शेष कर्मों का।। __गाथार्थ-आयुकर्म का हिस्सा सबसे थोड़ा है। नाम और गोत्र कर्म का भाग आपस में समान है किन्तु आयुकर्म के भाग से अधिक है, अन्तराय, ज्ञानावरण और दर्शनावरण का हिस्सा आपस में समान है किन्तु नाम और गोत्र के हिस्से से अधिक है। मोहनीय का हिस्सा उससे अधिक है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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