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________________ ( २८ ) अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य बन्धों को गिनाया है । स्थितिबन्ध को बतलाते हुए मूल तथा उत्तर प्रकृतियों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति, एकेन्द्रिय आदि जीवों के उसका प्रमाण निकालने की रीति और उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थितिबन्ध के स्वामियों का वर्णन किया है । अनुभाग (रस) बन्ध को बतलाते हुए शुभाशुभ प्रकृतियों में तीव्र या मन्द रस पड़ने के कारण, शुभाशुभ रस का विशेष स्वरूप, उत्कृष्ट व जघन्य अनुभाग बंध के स्वामी आदि का वर्णन किया है। प्रदेशबंध का वर्णन करते हुए वर्गणाओं का स्वरूप, उनकी अवगाहना, बद्धकर्मदलिकों का मूल एवं उत्तर प्रकृतियों में बंटवारा, कर्मक्षपण की कारण ग्यारह गुणश्रेणियाँ, गुणश्रेणी रचना का स्वरूप, गुणस्थानों का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तराल, प्रसंगवश पल्योपम, सागरोपम और पुद्गलपरावर्त के भेदों का स्वरूप, उत्कृष्ट व जघन्य प्रदेशबंध के स्वामी, योगस्थान वगैरह का अल्पबहुत्व और प्रसंगवश लोक वगैरह का स्वरूप बतलाया है। अन्त में उपशमणि और क्षपकश्रेणि का कथन करते हुए ग्रन्थ को समाप्त किया है। पंचम कर्मग्रन्थ की रचना का आधार-जैसा कि पहले बतलाया जा चुका है कि श्री देवेन्द्रसूरि ने अपने इन नवीन कर्मग्रन्थों के नाम प्राचीन कर्मग्रन्थों के आधार पर ही रखे हैं तथा उनके आधार पर ही इनकी रचना हुई है। इसका प्रमाण यह है कि पंचभ कर्मग्रन्थ की टीका के प्रारम्भ में श्री देवेन्द्रसूरि ने प्राचीन शतक के प्रणेता श्री शिवशर्मसूरि का स्मरण किया है और अन्त में लिखा है कि कर्मप्रकृति पंचसंग्रह, वृहत् शतक आदि ग्रन्थों के आधार पर इस शतक की रचना की है । इसके अतिरिक्त इसकी रचना के मुख्य आधार कर्मप्रकृति और पंचसंग्रह प्रतीत होते हैं। क्योंकि इसकी टीका में अनेक स्थानों में संदर्भ ग्रन्थों के रूप में कर्मप्रकृति चूणि, कर्मप्रकृति टीका, पंचसंग्रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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