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शतक
वर्गणा के उतने ही विकल्प होते हैं यानी अग्रहण वर्गणा के जो अनन्त भेद होते हैं, वे भेद प्रत्येक अग्रहण वर्गणा के जानना चाहिये । न कि कुल अग्रहण वर्गणायें सिद्धराशि के अनन्तवें भाग प्रमाण हैं ।
अग्रहण वर्गणाओं के बारे में दूसरी बात यह भी जानना चाहिये कि ये ग्रहण वर्गणाओं के अन्तराल में ग्रहण वर्गणा के बाद अग्रहण वर्गणा और अग्रहण वर्गणा के बाद ग्रहण वर्गणा, इस क्रम से होती हैं। ऐसा नहीं है कि उनमें से कुछ वर्गणायें औदारिक वर्गणा से पहले होती हैं और कुछ बाद में । इसी प्रकार वैक्रिय आदि की ग्रहणयोग्य वर्गणाओं के बारे में समझना चाहिये । ___ अग्रहण वर्गणाओं का उत्कृष्ट अपने-अपने जघन्य से सिद्ध राशि के अनन्तवें भाग गुणित है और ग्रहणयोग्य वर्गणाओं का उत्कृष्ट अपनेअपने जघन्य से अनन्तवें भाग अधिक है। यानी जघन्य ग्रहणयोग्य स्कन्ध से अनन्तवें भाग अधिक परमाणु उत्कृष्ट ग्रहणयोग्य स्कन्ध में होते हैं।
इस प्रकार से वर्गणाओं का ग्राह्य-अग्राह्य, उत्कृष्ट-जघन्य आदि सभी प्रकारों से विवेचन किये जाने के पश्चात् अब आगे की गाथा में जीव जिस प्रकार के कर्मस्कन्ध को ग्रहण करता है, उसे बतलाते हैं ।
अंतिमचउफासदुगंधपंचवन्नरसकम्मखंधदलं । सत्यजियणंतगुणरसमणुजुत्तमणतयपएसं ॥७॥ एगपएसोगाढं नियसवपएसउ गहेड जिऊ ।
शब्दार्थ अन्तिमचउफास - अन्त में चार स्पर्श, दुगंध-दो गंध, पंचवन्नरस - पांच वर्ण और पांच रम वाले, कम्मखंधदलं-- कर्मस्कन्ध दलिकों को. सव्वजियणंतगुणरसं- मर्व जीवों से भी अनन्त गुणे रम वाले. अणजुत्त-अणुओं से युक्त, अणंतयपएसंअनन्त प्रदेश वाले, एगपएसोगाढं-एक क्षेत्र में अवगाढ रूप से विद्य
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