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और कार्मण वर्गणा हैं, सुहमा --- सूक्ष्म, कम - अनुक्रम से, अवगाहो अवगाहना, ऊणूण – न्यून - न्यून, अंगुल असंखंसो - अंगुल के असंख्यातवें भाग
शतक
गाथार्थ पूर्वोक्त के समान ही वैक्रिय, आहारक, तेजस, भाषा, श्वासोच्छ्वास, मन और कार्मण वर्गणायें होती हैं । ये औदारिकादि वर्गणायें क्रमशः सूक्ष्म समझना चाहिये और उनकी अवगाहना उत्तरोत्तर न्यून - न्यून अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है ।
विशेषार्थ - पूर्व गाथा में औदारिक शरीर की ग्रहणयोग्य वर्गणा का और उसकी अग्रहणयोग्य वर्गणा का स्वरूप बतला आये हैं । इस गाथा में उसके बाद की वर्गणाओं का निर्देश कर उनके स्वरूप का स्पष्टीकरण किया है । पौद्गलिक वर्गणाओं के आठ प्रकार है- औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, भाषा, श्वासोच्छ्वास, मन और कार्मण । ये आठों वर्गणायें प्रत्येक ग्रहणयोग्य और अग्रहणयोग्य होती हैं, जिससे 'कुल मिलाकर सोलह भेद हो जाते हैं । इन सोलह वर्गणाओं में से प्रत्येक के जघन्य और उत्कृष्ट दो मुख्य विकल्प होते हैं और जघन्य से लेकर उत्कृष्ट पर्यन्त अनंत मध्यम विकल्प होते हैं । ग्रहण वर्गणा के जघन्य से उसका उत्कृष्ट अनंतवें भाग अधिक होता है और अग्रहण वर्गणा के जघन्य से उसका उत्कृष्ट अनन्त गुणा होता है ।
मनुष्य और तियंचों के स्थूल शरीर को औदारिक कहते हैं और जिन पुद्गल वर्गणाओं से यह शरीर बनता है, वे वर्गणायें औदारिक की ग्रहणयोग्य कही जाती हैं ।
देव और नारकों के शरीर को वैक्रिय कहते हैं । जिन वर्गणाओं से यह शरीर बनता है वे वर्गणायें वैक्रिय की ग्रहणयोग्य कही जाती हैं । इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिये । जो शरीर चौदह पूर्व के पाठी
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