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________________ २६० गाथा में बताये गये भेदों का विवरण इस प्रकार है कि तैजसचतुष्क (तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण) तथा वर्णचतुष्क - वर्ण, गंध, रस और स्पर्श (यहां शुभ वर्णचतुष्क समझना चाहिये), वेदनीय कर्म और नामकर्म का अनुत्कृष्ट अनुभाग बंध सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव इस प्रकार चार तरह का होता है । जो इस प्रकार है - शतक तेजसचतुष्क और शुभ वर्णचतुष्क इन आठ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध क्षपक अपूर्वकरण गुणस्थान में देवगति योग्य तीस प्रकृतियों के बन्धविच्छेद के समय होता है । इसके सिवाय उपशम श्र ेणि आदि अन्य स्थानों में उक्त प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट बंध ही होता है । किन्तु ग्यारहवें गुणस्थान में विल्कुल बंध नहीं होता है और ग्यारहवें गुणस्थान से गिरकर कोई जीव उक्त प्रकृतियों का पुनः अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्ध करता है तब वह सादि कहलाता है और इस अवस्था को प्राप्त होने से पहले उनका बंध अनादि कहलाता है, क्योंकि उसके वह बंध अनादि से होता चला आ रहा है । भव्य जीव का बंध अध्रुव और अभव्य जीव का बंध ध्रुव होता है । इस प्रकार उक्त आठ प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट अनुभाग बंध सादि आदि चार प्रकार का होता है । x+ किन्तु इनके शेष उत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभाग बंध के सादि और अध्रुव यह दो ही भंग होते हैं । क्योंकि पूर्व में बताया है कि तेजसचतुष्क और वर्णचतुष्क का उत्कृष्ट अनुभाग बंध क्षपक अपूर्वकरण गुणस्थान वाला करता है जो इससे पहले नहीं होता है । इसीलिये सादि है और एक समय तक होकर आगे नहीं होता है, अतः अध्रुव है । ये प्रकृतियां शुभ हैं जिससे इनका जघन्य अनुभाग बंध उत्कृष्ट संक्लेशवाला पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव करता है और कम-से-कम एक समय और अधिक-से-अधिक दो समय के बाद वही जीव उनका अजघन्य बंध करता है । कालान्तर में उत्कृष्ट संक्लेश होने पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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