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________________ पंचम कर्मग्रन्य २३६ और नारक अति संक्लिष्ट परिणाम होने पर तिर्यंचगति के योग्य प्रकृतियों का ही बंध करते हैं। इसीलिये उक्त तीन प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग बंध का स्वामी देवों और नारकों को बतलाया है। उक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग बंध होने के बारे में इतना विशेष जानना चाहिये कि देवगति में सेवार्त संहनन का उत्कृष्ट अनुभाग बंध ईशान स्वर्ग से ऊपर के सानत्कुमार आदि देव ही करते हैं । क्योंकि ईशान स्वर्ग तक के देव अति संक्लिष्ट परिणामों के होने पर एकेन्द्रिय योग्य प्रकृतियों का ही बंध करते हैं, किन्तु सेवात संहनन एकेन्द्रिय योग्य नहीं है, क्योंकि एकेन्द्रियों के संहनन नहीं होता है। विउविसुराहारदुगं सुखगइ वन्नचउतेयजिणसायं । समच उपरघातसदस पणिदिसासुच्च खवगाउ ॥६७॥ तमतमगा उज्जोयं सम्मसुरा मणुयउरलदुगवइरं । अपमत्तो अमराउं चउगइमिच्छा उ सेसाणं ॥६॥ शब्दार्थ - विउव्विसुराहारदुर्ग-वैक्रियद्विक, देवद्विक और आहारक द्विक का, सुखगई-शुभ विहायोगति, वन्नचउतेय-वर्णचतुष्क और तैजसचतुष्क, जिण-तीर्थंकर नामकर्म, सायं-साता वेदनीय का, समचउ--समचतुरस्र सस्थान, परघा-पराघात, तसदस-सदशक, पणिदिसासुच्च-पंचेन्द्रिय जाति, उच्छ्वास नामकर्म और उच्च गोत्र का, खवगाउ-क्षपक श्रेणि वाले को। तमतमगा - तमःतमप्रभा के नारक, उज्जोयं-उद्योत नामकर्म का, सम्मसुरा-सम्यग्दृष्टि देव, मणुयउरलदुग-मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक, वइरं-वज्रऋषभनाराच संहनन का, अपमत्तोअप्रमत्त संयत, अमराउं - देवायु का, चउगइमिच्छा -चारों गति के मिथ्यादृष्टि जीव, उ-और, सेसाणं- शेष प्रकृतियों का। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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