SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम कर्मग्रन्थ २२५ यउ-विपरीतता से, मंदरसो-मंदरस, गिरिमहिरयजलरेहापर्वत, पृथ्वी, रेती और जल की रेखा के, सरिस—ममान, कसाएहि -- कषाय द्वारा। ___ चउठाणाई-चतुःस्थानादि, असुहा—अशुभ प्रकृतियों में, सुहनहा-शुभ प्रकृतियों में विपरीतता से, विग्घदेसघाइआवरणाअन्तराय और देशघाती आवरण प्रकृतियां, पुमसंजलण-पुरुषवेद और संज्वलन कषाय, इगदुतिचउठाणरसा - एक, दो, तीन, चार स्थानिक रसयुक्त, सेसा--बाकी की प्रकृतियां, दुगमाइ-दो आदि स्थानिक रसयुक्त। __गाथार्थ- अशुभ और शुभ प्रकृतियों का तीव्र रस अनुक्रम से संक्लेश और विशुद्धि के द्वारा बंधता है । पर्वत, पृथ्वी, रेती और पानी में की गई रेखा के समान कषाय द्वारा अशुभ प्रकृतियों में चतुःस्थानिक आदि रस होता है और शुभ प्रकृतियों में विपरीतता द्वारा चतुःस्थानिक आदि रस होता है। पांच अन्तराय, देशघाती आवरण करने वाली प्रकृतियां, पुरुषवेद और संज्वलन कषाय चतुष्क, ये प्रकृतियां एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानक और चारस्थानिक रसयुक्त और बाकी की प्रकृतियां द्विस्थानिक आदि तीन प्रकार के रसयुक्त बंधती हैं। निशेषार्थ-लोक में कार्मण वर्गणायें व्याप्त हैं । इन कर्म परमाणुओं में जीव के साथ बंधने से पहले किसी प्रकार का रस-फलजनन शक्ति नहीं रहती है। किन्तु जब वे जीव के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं तब ग्रहण करने के समय में ही जीव के कषाय रूप परिणामों का निमित्त पाकर उनमें अनंतगुणा रस पड़ जाता है जो अपने विपाकोदय में उसउस रूप में अपना-अपना फल देकर जीव के गुणों का घात करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy