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शतक
आठवें गुणस्थान के छठे भाग में ही हो जाता है । पुनः उपशम श्र ेण से गिरकर अन्तर्मुहूर्त तक तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके वह जीव उपशम श्र ेणि चढ़ा और वहां उसका अबन्धक हुआ। उस समय तीर्थकर प्रकृति का जघन्य बंधकाल अन्तर्मुहूर्त घटित होता है ।
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इस प्रकार से अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के निरन्तर बंधकाल के कथन के साथ स्थितिबंध का विवेचन पूर्ण होता है । अब आगे रसबंध ( अनुभाग बंध) का विवेचन करते हैं ।
रसबंध
बंध के प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और रस इन चार भेदों में से प्रकृतिबंध और स्थितिबंध का वर्णन करने के बाद अब रसबंध अथवा अनुभाग बंध का वर्णन करते हैं । सबसे पहले ग्रन्थकार शुभ और अशुभ प्रकृतियों के तीव्र और मंद अनुभाग बंध के कारणों को बतलाते हैं । तिब्वो असुहसुहाणं संकेसविसोहिओ विवज्जयउ । मदरसो गिरिमहिरयजल रेहासरिसकसाएहिं ॥ ६३ ॥ चउठाणाई असुहा सुहा विग्घदेसघाइआवरणा । पुमसंजलणिगदुतिचउठाणरसा सेस दुगमाई ॥६४॥
शब्दार्थ - तिब्वो- तीव्ररस, असुहसुहाणं- अशुभ और शुभ प्रकृतियों का संकेस विसोहिओ - संक्लेश और विशुद्धि द्वारा, विवज्ज
१ गो० कर्मकांड में अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का सिर्फ़ जघन्य बन्धकाल ही बतलाया है—
अवरो भिण्णमुहुत्तो तित्थाहाराण सव्वआऊणं ।
समओ छावद्वीणं बंधो तम्हा दुधा सेसा ।। १२६
तीर्थंकर, आहारकद्विक और चार आयुओं के निरन्तर बंध होने का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और शेष छियासठ प्रकृतियों के निरन्तर बन्ध का जघन्य काल एक समय है ।
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