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________________ २०८ शतक तृतीय स्थितिबंध के कारण अध्यवसायस्थान उससे भी असंख्यात गुणे हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिबंध पर्यन्त अध्यवसायस्थानों की संख्या असंख्यात गुणी, असंख्यात गुणी समझना चाहिये। इस प्रकार से स्थितिबंध की अपेक्षा सब कर्मों के अध्यवसाय स्थानों को बतलाकर अब उन प्रकृतियों के नाम और उनका अबन्धकाल बतलाते हैं, जिनको पंचेन्द्रिय जीव अधिक-से-अधिक कितने काल तक नहीं बाँधते हैं। तिरिनरतिजोयाणं नरभवजुय सच पल्ल तेसठ्ठ। थावरचउइगविगलायवेसु पणसीइसयमयरा ॥५६॥ अपढमसंघयणागिइखगई अणमिच्छदुभगथीतिगं । निय नपु इत्थि दुतीसं पणिदिसु अबन्धठिइ परमा ॥५७॥ शब्दार्थ-तिरिनरयति तिर्यंचत्रिक और नरकत्रिक, जोयाणं . उद्योत नामकर्म का, नरभवजुय - मनुष्य भव सहित, सचउपल्ल-चार पल्योपम सहित तेसट्ठ --- सठ (अधिक सौ सागरोपम), थावरचउ --- स्थावर चतुष्क, इगविगलायवेसु ---एकन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और आतप नामकर्म में, पणसीइसयं-- एक सौ पचासी, अय। --सागरोपम । अपढमसंघयणागिइखगइ~-पहले के सिवाय शेष संहनन और संस्थान और विहायोगति, अण-अनंतानुबंधी कषाय, मिच्छमिथ्यात्व मोहनीय, दुभगथीण तिगं-दुर्भगत्रिक स्त्यानद्धि त्रिक, निय-नीच गोत्र, नपुइथि नपुसकवेद, स्त्रीवेद, दुतीसं-बत्तीस (नरभवसहित एकसौ बत्तीस सागरोपम), पणिदिसु-पंचेन्द्रिय में, अबन्धठिइ-अबन्ध स्थिति, परमा-उत्कृष्ट । गाथार्थ तिर्यंचत्रिक, नरकत्रिक और उद्योत नामकर्म का मनुष्य भव सहित चार पल्योपम अधिक एकसौ त्रेसठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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