________________
पंचम कर्मग्रन्थ
२०७
सम्वोवि अपज्जत्तो पइखणं असंखगुणाए जोगवुड्ढीए वड्ढईत्ति । एक-एक स्थितिस्थान के कारण असंख्यात अध्यवसायस्थान होते हैं । __स्थितिबंध के कारण कषायजन्य आत्मपरिणामों को अध्यवसायस्थान कहते हैं । कषायों के तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, मंद, मंदतर, मंदतम रूप में उदय होने से अध्यवसायस्थानों के अनेक भेद हो जाते हैं । एक स्थितिबंध का कारण एक ही अध्यवसायस्थान नहीं है किन्तु अनेक अध्यवसायस्थान हैं। अर्थात् एक ही स्थिति नाना जीवों को नाना अध्यवसायस्थानों से बंधती है। जैसे कुछ व्यक्तियों ने दो सागर प्रमाण की देवायु का बंध किया हो, लेकिन यह आवश्यक नहीं कि उन सबके सर्वथा एक जैसे परिणाम हों । इसीलिए एक-एक स्थितिस्थान के कारण अध्यवसायस्थान असंख्यात लोकप्रमाण कहे जाते हैं।
(आयुकर्म के सिवाय ज्ञानावरण आदि सात कर्मों के अध्यवसायस्थान विशेषाधिक हैं। जैसे ज्ञानावरण कर्म की जघन्य स्थिति के कारण अध्यवसायस्थान सबसे कम हैं, उससे द्वितीय स्थितिस्थान के कारण अध्यवसाय अधिक हैं, उससे तृतीय स्थितिस्थान के कारण अध्यवसायस्थान अधिक हैं। इसी प्रकार चौथे, पांचवें यावत् उत्कृष्ट स्थितिस्थान तक समझना चाहिए। लेकिन इन सबका सामान्य से प्रमाण असंख्यात लोकप्रमाण ही है। ज्ञानावरण की तरह दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र और अंतराय कर्म की द्वितीय आदि स्थिति से लेकर अपने-अपने उत्कृष्ट स्थितिबंध पर्यन्त अध्यवसायस्थानों की संख्या अधिक-अधिक जानना चाहिए।
लेकिन आयुकर्म के अध्यवसायस्थान उत्तरोत्तर असंख्यात गुणे हैं । अर्थात् चारों ही आयुकर्मों के जघन्य स्थितिबंध के कारण अध्यवसायस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं और उसके बाद उनके दूसरे स्थितिबंध के कारण अध्यवसायस्थान उससे असंख्यात गुणे हैं,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org