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पंचम कर्मग्रन्थ
२०५ इतनी विशेषता है कि 'अपजविए असंखगुणा' द्वीन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिस्थान असंख्यात गुणे हैं। इसका स्पष्टीकरण नीचे किया जा रहा है।
किसी कर्मप्रकृति की जघन्य स्थिति से लेकर एक-एक समय बढ़तेबढ़ते उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त स्थिति के जो भेद होते हैं, वे स्थितिस्थान' कहलाते हैं। जैसे किसी कर्मप्रकृति की जघन्यस्थिति १० समय और उत्कृष्टस्थिति १८ समय है तो दस से लेकर अठारह तक स्थिति के नौ भेद होते हैं, जिन्हें स्थितिस्थान कहते हैं। ये स्थितिस्थान भी उत्तरोत्तर संख्यात गुणे हैं किन्तु द्वीन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिस्थान असंख्यात गुणे होते हैं । उनका क्रम इस प्रकार है१ सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त के स्थितिस्थान सबसे कम हैं। २ उससे बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यातगुणे हैं । ३ उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणे हैं । ४ उससे बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणे हैं। ५ उससे द्वीन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिस्थान असंख्यात गुणे हैं। ६ उससे द्वीन्द्रिय पर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणे हैं । ७ उससे त्रीन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणे हैं। ८ उससे त्रीन्द्रिय पर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणे हैं। ६ उससे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणे हैं। १० उससे चतुरिन्द्रिय पर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणे हैं। ११ उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणे हैं। १२ उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणे हैं ।
१ तत्र जघन्य स्थितेरारभ्य एकैकसमयवृद्ध या सर्वोत्कृष्ट निज स्थितिपर्यवसाना
ये स्थितिभेदास्ते स्थितिस्थानान्युच्यन्ते । ---पंचम कर्मग्रन्थ टीका, पृ० ५५
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