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________________ २०४ शतक ३३. शेष देव, नारक, तिर्यंच और मनुष्यों का उत्कृष्ट योग उत्तरोत्तर असंख्यात गुणा है ।' ___ इस प्रकार से सब जीवों के योग का अल्पबहुत्व जानना चाहिये। सर्वत्र गुणाकार का प्रमाण पल्योपम के असंख्यातवें भाग जानना अर्थात् पहले-पहले योगस्थान में पल्य के असंख्यातवें भाग का गुणा करने पर आगे के योगस्थान का प्रमाण आता है। इसका यह अर्थ हुआ कि ज्यों-ज्यों उत्तरोत्तर जीव की शक्ति का विकास होता जाता है, त्यों-त्यों योगस्थान में भी वृद्धि होती जाती है । जघन्य योग से जीव जघन्य प्रदेशबंध और उत्कृष्ट योग से उत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है। ___ इस प्रकार से योगस्थानों के अल्पबहुत्व का कथन करने के पश्चात् अब स्थितिस्थानों का कथन करते हैं --ठिठाणा अपजेयर संखगुणा--अपर्याप्त से पर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणे हैं किन्तु १ कर्मप्रकृति (बंधनकरण) में असज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के उत्कृष्ट योग से अनुत्तरवासी देवों का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा बतलाया है ---- अमणाणुत्तरगेविज्ज भोगभूमिगयतइयतणुगेसु । कमसो असंखगुणिओ सेसेसु य जोग उक्कोसो ।। १६ ॥ जब असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के उत्कृष्ट योग को कहने के बाद अनुत्तरवासी देवों आदि के उत्कृष्ट योग का कथन करेंगे तो २८ वाँ स्थान २७ वाँ होगा और कुल मिलाकर सब स्थान ३२ होंगे। कर्मप्रकृति में इसी प्रकार है। २ सब जीवों के योग का अल्पबहुत्व भगवती २५१ में बतलाया है । उसमें पर्याप्त के जघन्य योग से अपर्याप्त का उत्कृष्ट योग अधिक कहा है । बोल भी आगे पीछे हैं । इसका कारण तो बहुश्रुतगम्य है । ३ गो. कर्मकांड गा० २१८ से २४२ तक योगस्थानों का विस्तृत वर्णन किया है । इसका उपयोगी अंश परिशिष्ट में देखिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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