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________________ पंचम कर्मग्रन्थ २०१ संसारी जीव में वह शक्ति वीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से प्रगट होती है । उस वीर्य के द्वारा जीव पहले औदारिक आदि शरीरों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है और ग्रहण करके उन्हें औदारिक आदि शरीर रूप परिणमाता है तथा श्वासोच्छ्वास, भाषा, मन के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें श्वासोच्छ्वास आदि रूप परिणमाता है और परिणमा कर उनका अवलंबन यानी सहायता लेता है । यह क्रम सतत चलता रहता है। पुद्गलों को ग्रहण करने के तीन निमित्त हैं-मन, वचन और काय । इसीलिये योग के भी तीन नाम हो जाते हैं—मनोयोग, वचनयोग, काययोग ।' मन के अवलंबन से होने वाले योग-व्यापार को मनोयोग, वचन के अवलंबन से होने वाले योग व्यापार को वचनयोग और श्वासोच्छ्वास आदि के अवलबन से होने वाले योग व्यापार को काययोग कहते हैं । सारांश यह है कि जीव में विद्यमान योग नामक शक्ति से वह मन, वचन, काय आदि का निर्माण करता है और ये मन, वचन और काय उसकी योग नामक शक्ति के अवलंबन होते हैं। इस प्रकार से योग पुद्गलों को ग्रहण करने का, ग्रहण किये हुए पुद्गलों को शरीरादि रूप परिणमाने का और उनका अवलंबन लेने का साधन है। ___ योग, वीर्य, स्थाम, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति, सामर्थ्य, ये योग के नामान्तर हैं।' १ कायवाङ मन: कर्मयोगः । -- तत्त्वार्थसूत्र ६१ २ योगों की विशद व्याख्या और. भेदों के नाम आदि के लिये चतुर्थ कर्मग्रन्थ में योगमार्गणा को देखिये । ३ जोगो विरियं थामो उच्छाह परक्कमो तहा चिट्ठा । नत्ती सामत्थं चिय जोगरम हवन्ति पज्जाया ।। - पंचसंग्रह ३६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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