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________________ पंचम कर्मग्रन्थ १६५ यहां यह विशेष समझना चाहिये कि संयत के उत्कृष्ट स्थितिबंध से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त के उत्कृष्ट स्थितिबंध तक के बताये गये स्थितिबंध स्थानों का प्रमाण अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर ही है। अर्थात् सभी स्थितिबंधों का प्रमाण अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण ही होगा। संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के उत्कृष्ट स्थितिबंध का प्रमाण सामान्य से बताये गये उत्कृष्ट स्थितिबंध के प्रमाण के समान समझना चाहिये। इसी तरह त्रीन्द्रिय से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक की स्थिति के भी चारचार भेद जानना चाहिए। अर्थात बादर पर्याप्त की उत्कृष्ट स्थिति, सूक्ष्म पर्याप्त की उत्कृष्ट स्थिति, बादर अपर्याप्त की उत्कृष्ट स्थिति, सूक्ष्म अपर्याप्त की उत्कृष्ट स्थिति, सूक्ष्म अपर्याप्त की जघन्य स्थिति, बादर अपर्याप्त की जघन्य स्थिति, सूक्ष्म पर्याप्त की जघन्य स्थिति, बादर पर्याप्त की जघन्य स्थिति, ये एकेन्द्रिय के भेदों का क्रम है । द्वीन्द्रिय पर्याप्त और द्वीन्द्रिय अपर्याप्त की उत्कृष्ट स्थिति, द्वीन्द्रिय अपर्याप्त और द्वीन्द्रिय पर्याप्त की जघन्य स्थिति, इसी प्रकार त्रीन्द्रिय आदि में जानना चाहिये। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि के इन अवान्तर भेदों में जो स्थिति बतलाई है, वह उत्तरोत्तर कम है । उनके इस क्रम को नीचे से ऊपर की ओर पढ़ने पर कर्मग्रन्थ के प्रतिपादन के अनुकूल हो जाता है । 'ओघुक्कोसो सन्निस्स होई पज्जत्तगस्सेव ।।८२॥' . 'अभितरतो उ कोडाकोडी ए' ति एवं संजयस्स उक्कोसातो आढत्तं कोडाकोडीए अभितरतो भवति ।' -कर्मप्रकृति व चूर्णि संयत के उत्कृष्ट स्थितिबंध से लेकर अपर्याप्त संजी पचेन्द्रिय के उत्कृष्ट ग्थितिबध तक जितना भी स्थितिबंध है, वह कोडाकोड़ी सागर के अन्दर ही जानना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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