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________________ शतक १९४ लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त और असंज्ञी पंचेन्द्रिय से संयमी के होने वाले उत्तरोत्तर अधिक स्थितिबंध से यही स्पष्ट होता है कि चैतन्यशक्ति के विकास के साथ संक्लेश की संभावना भी अधिक-अधिक होती है। एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त सभी जीव प्रायः हिताहित के विवेक से रहित मिथ्यादृष्टि होते हैं और उनमें इतनी शक्ति नहीं होती कि वे अपनी विकसित चैतन्य शक्ति का उपयोग संक्लेश परिणामों के रोकने में करें । इसलिए उनको उत्तरोत्तर अधिक ही स्थितिबंध होता है, किन्तु संज्ञी पंचेन्द्रिय होने के कारण संयमी मनुष्य की चैतन्यशक्ति विकसित होती है। जिससे संयमी होने के कारण संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा उनका स्थितिबंध बहुत कम होता है किन्तु असंज्ञी पंचेन्द्रिय की अपेक्षा से वह अधिक ही है।' गो० कर्मकांड में स्थितिबंध का अल्पबहुत्व तो नहीं बताया है किन्तु एकेन्द्रिय आदि जीवों के अवान्तर भेदों में स्थितिबंध का निरूपण किया है। जिससे अल्पबहुत्व का ज्ञान हो जाता है, एकेन्द्रिय आदि जीवों के अवान्तर भेदों के स्थिति बंध का निरूपण निम्न क्रम से किया है बासूप बासूअ वरट्ठिदीओ सूबाअ सूबाप जहण्णकालो। वीबीवरो वी बिजहण्णकालो सेसाणमेव वयणीयमेदं ।।१४८।। वासूप-वादर- सूक्ष्म पर्याप्त और बासूअ-वादर सूक्ष्म अपर्याप्त दोनों मिलाकर चार तरह के जीवों के कर्मों की उत्कृप्ट स्थिति तथा सूबाअ- सूक्ष्म-वादर अपर्याप्त, सूबाप- सूक्ष्म-बादर पर्याप्त जीवों के कर्मों की जघन्य स्थिति, इस तरह एकेन्द्रिय जीव की कर्मस्थिति के आठ भेद हैं। बीबीवरः द्वीन्द्रिय पर्याप्त और द्वीन्द्रिय अपर्याप्त इन दोनों की उत्कृष्ट कर्मस्थिति तथा द्वीन्द्रिय अपर्याप्त और द्वीन्द्रिय पर्याप्त इन दोनों का जघन्य काल, इस तरह द्वीन्द्रिय की स्थिति के चार भेद हैं। (शेष पृष्ठ १६५ पर) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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