SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 228
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम कर्मग्रन्थ १८१ गाथार्थ (संज्वलन कषाय चतुष्क, नौ आवरण (पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण) और पांच अंतराय के अजघन्य बंध में चारों भेद होते हैं। शेष तोन बंधों के सादि और अध्रुव यह दो विकल्प तथा शेष प्रकृतियों के चारों बंधों के भी सादि और अध्रुव ये दो ही विकल्प होते हैं। विशेषार्थ-इस गाथा में उत्तर प्रकृतियों के उत्कृष्ट आदि बंधों के सादि आदि भेद बतलाये हैं। जैसा मूल प्रकृतियों में सबसे पहले अजघन्य बंध के विकल्पों का कथन किया गया है, वैसे ही उत्तर प्रकृतियों भी अजघन्य बंध के विकल्पों का यहां विवेचन किया जा रहा है। १२० प्रकृतियों में से अजघन्य बंध वाली प्रकृतियां सिर्फ अठारह हैं। जिनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं-(संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ, मतिज्ञानावरण, श्रु तज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनपर्यायज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण तथा दान, लोभ, भोग, उपयोग, वीर्य अन्तराय-संजलणावरणनवगविग्धाणं । इन अठारह प्रकृतियों की अजघन्य स्थिति की शुरूआत उपशम श्रोणि से पतित होने वाले के होती है। इन अठारह प्रकृतियों के अजघन्य बंध के सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव ये चारों ही विकल्प होते हैं, जो मूल कर्मों के अजवन्य बंध की तरह ही जानना चाहिये । उपशम श्रेणि में इन अठारह प्रकृतियों का बंधविच्छेद करके जब वहां से च्युत होकर पुनः उनका अजघन्य बंध करते हैं तो वह बंध सादि और उपशम श्रेणि में आरोहण करने से पहले वह बंध अनादि होता है। अभव्य की अपेक्षा वही बंध ध्रुव और भव्य की अपेक्षा अध्रुव है। इसीलिये इन प्रकृतियों के अजघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy