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१८०
शतक
इस प्रकार से आयुकर्म के सिवाय शेष ज्ञानावरण आदि सात कर्मों के उत्कृष्ट आदि चारों बंधप्रकारों के सादि, अनादि आदि चार बंधभेदों की अपेक्षा से प्रत्येक के दस-दस और आयुकर्म के आठ भंग होने से कुल ७८ भंग होते हैं, जो इस प्रकार हैं
ज्ञानावरण के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य बंध में से प्रत्येक के सादि और अध्रुव यह दो विकल्प होते हैं, अतः तीनों के कुल मिलाकर छह भंग हुए तथा अजघन्य बंध के सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव ये चारों विकल्प होने से पूर्व के छह भेदों को इन चार के साथ मिलाने से कुल दस भंग हो जाते हैं । इसी प्रकार से दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र और अंतराय के बंधभेदों में प्रत्येक के दस-दस भंग जानना चाहिये । आयुकर्म के भी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य ये चारों प्रकार के बंध होते हैं, लेकिन ये चारों प्रत्येक सादि और अध्रुव विकल्प वाले होने से प्रत्येक के दो-दो भंग हैं और कुल मिलाकर आठ भंग होते हैं। इस प्रकार १०+१०+१०+१०+१०
+१०+१०+८=७८ भंग ज्ञानावरण आदि आठ मूल कर्मों के होते हैं।
मूल कर्मों के अजघन्य आदि बंधों में सादि 'आदि भंगों का निरूपण करने के बाद अब उत्तर प्रकृतियों में उनका कथन करते हैं।
चउभेओ अजहन्नो संजलणावरणनवगविग्घाणं । सेसतिगि साइअधुवो तह चउहा सेसपयडीणं ॥४७॥
शब्दार्थ-चउभेओ चार भेद, अजहन्नो- अजघन्य बंध में. संजलणावरणनवगविग्धाणं--संज्वलन कपाय, नौ आवरण और अन्तराय के, सेसतिगि--शेष तीन बंधों में, साइअधुवो -- सादि और अध्रुव, तह-वैसे ही, चउहा-चारों बंध प्रकारों में, सेसपयडीणं-बाकी की प्रकृतियों के ।
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