________________
( १७ )
विशुद्ध तत्त्व माना है । समयप्राभूत में आत्मा (जीव) के स्वरूप का निर्देश करते हुए इसे रस रहित, गंधरहित, स्पर्शरहित, रूपरहित अव्यक्त और चेतना गुण वाला बतलाया है। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र में जीव को उपयोग लक्षण वाला लिखा है परन्तु इससे उक्त कथन का ही समर्थन होता है। क्योंकि ज्ञान और दर्शन ये चेतना के भेद हैं । उपयोग शब्द से इन्हीं का बोध होता है ।
जीव के सिवाय अन्य जो पदार्थ हैं, जिनमें ज्ञान-दर्शन नहीं पाया जाता, उन्हें अजीव कहते हैं। जड़, अचेतन यह अजीव के नामान्तर हैं। वैज्ञानिकों ने ऐसे जड़ पदार्थों की संख्या अनेक बतलाई है। परन्तु जैनदर्शन में वर्गीकरण करके ऐसे पदार्थ पाँच बतलाये हैं। जिनके नाम हैं-धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल । इनमें वैज्ञानिकों द्वारा बतलाये गये सब पदार्थों-तत्वों का समावेश हो जाता है । उक्त पाँच तत्वों के साथ जीव को मिलाने से छह तत्व होते हैं। इन छह तत्वों को छह द्रव्य कहते हैं ।
उक्त छह द्रव्यों में से धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य सदा अविकारी माने गये हैं। निमित्तवश इनके स्वभाव में कभी भी विपरिणाम-विकार नहीं होता है किन्तु जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य ऐसे हैं जो विकारो और अविकारी दोनों प्रकार के होते हैं। जब ये अन्य द्रव्य से संश्लिष्ट रहते हैं तब विकारी होते हैं और इसके अभाव में अविकारी होते हैं । इस हिसाब से जीव और पुद्गल के दोदो भेद हो जाते हैं । संसारी और मुक्त, ये जीव के दो भेद हैं तथा अणु और स्कन्ध, ये पुद्गल के दो भेद हैं। जीव मुक्त अवस्था में अविकारी है और संसारी अवस्था में विकारी। पुद्गल अणु अवस्था में अविकारी और स्कन्ध अवस्था में विकारी । तात्पर्य यह है कि जीव और पुद्गल जब तक अन्य द्रव्य से संश्लिष्ट रहते हैं तब तक उस संश्लेष के कारण उनके स्वभाव में विपरिणति हुआ करती है । इस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org