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गदिमधिगदस्स देहो देहादो इन्दियाणि जायन्ते । तेहिं दु विसयगहणं तत्तो रागो व दोसो व ॥ जायदि जीवस्सेवं भावो संसार चक्कवालम्मि ॥
इदि जिणवरेहि भणिदो अणादिणिधणो सणिधणो वा ।। जन्म लेने पर शरीर होता है, शरीर में इन्द्रियां होती हैं, इन्द्रियों से विषय ग्रहण करता है । विषयों के ग्रहण करने से राग व द्वष रूप परिणाम होते हैं। इस संसारचक्र में पड़े हुए जीव के भावों से कर्म
और कर्म से भाव होते रहते हैं। यह प्रवाह अभव्य जीव की अपेक्षा से अनादि-अनन्त और भव्य जीव की अपेक्षा से अनादि-सान्त है ।
उक्त कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि संसारी जीव अनादि काल से मूर्तिक कर्मों से बंधा हुआ है । जब जीव मूर्तिक कर्मों से बंधा है तब उसके जो नवीन कर्म बंधते हैं वे कर्म जीव में स्थित मूर्तिक कर्मों के साथ ही बंधते हैं । क्योंकि मूर्तिक का मूर्तिक के साथ संयोग होता है और मूर्तिक का मूर्तिक के साथ ही बंध होता है । इसलिये आत्मा में स्थित पुरातन कर्मों के साथ ही नये कर्म बन्ध को प्राप्त होते रहते हैं। इस प्रकार कथंचित् मूर्तिक आत्मा के साथ मूर्तिक कर्मद्रव्य का सम्बन्ध जानना चाहिये । सारांश यह है कि जैनदर्शन में जीव से सम्बद्ध मूर्तिक द्रव्य और उसके निमित्त से होने वाले रागद्वेषरूप भावों को कर्म कहा गया है। कर्म केवल जीव द्वारा किये गये अच्छे बुरे कर्मों का नाम नहीं है किन्तु जीव के कर्मों के निमित्त से जो पुद्गल परमाणु आकृष्ट होकर उसके साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं, वे पुद्गल परमाणु भी कर्म कहलाते हैं और उन पुद्गल परमाणुओं के फलोन्मुख होने पर उनके निमित्त से जीव में जो कामक्रोधादि भाव होते हैं, वे भी कर्म कहे जाते हैं । सम्बन्ध की अनादिता
जैनदर्शन में वैदिकदर्शन के ब्रह्मतत्त्व के समान आत्मा को निर्मल,
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