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जैसे कि यदि किसी मनुष्य की आयु ६६ वर्ष है तो उसमें से ६६ वर्ष बीतने पर वह मनुष्य परभव की आयु बाँध सकता है, उससे पहले उसके आयुकर्म का बंध नहीं हो सकता है । इसलिये मनुष्यों और तियंचों के बध्यमान आयुकर्म का अबाधाकाल एक पूर्व कोटि का तीसरा भाग बतलाया है, क्योंकि कर्मभूमिज मनुष्य और तिर्यंच की उत्कृष्ट आयु एक पूर्व कोटि की होती है और उसके विभाग में परभव की आयु बंधती है ।
कर्मभूमिज मनुष्य और तिर्यंचों की अपेक्षा से आयुकर्म को अबाधा की उक्त व्यवस्था है, लेकिन भोगभूमिज मनुष्य और तिर्यंचों तथा देव और नारक अपनी-अपनी आयु के छह मास शेष रहने पर परभव की आयु बांधते हैं । क्योंकि ये अनपवर्त्य आयु वाले हैं, इनका अकाल मरण नहीं होता है।' इसी से निरुपक्रम आयु वालों के बध्यमान आयु का अबाधाकाल छह मास बतलाया है ।
आयुकर्म की अबाधा के संबंध में एक बात और ध्यान में रखने योग्य है कि पूर्व में जो सात कर्मों की स्थिति बतलाई है उसमें उनका अबाधाकाल भी संमिलित है । जैसे कि मिथ्यात्व मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम की बतलाई है और उसका अबाधाकाल सात हजार वर्ष है, तो ये सात हजार वर्ष उस सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम की स्थिति में संमिलित हैं । अतः जब मिथ्यात्व मोहनीय की अबाधारहित स्थिति ( अनुभवयोग्या) को जानना चाहें तो उसकी अबाधा के सात हजार वर्ष कम कर देना चाहिए । किन्तु
१ औपपातिकचरम देहोत्तमपुरुषाऽसंख्येय वर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः ।
शतक
- तत्वार्थ सूत्र २५२
- औपपातिक (नारक और देव), चरम शरीरी, उत्तम पुरुष और असंख्यात वर्ष जीवी, ये अनपवर्तनीय आयु वाले होते हैं ।
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