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पंचम कर्मग्रन्थ
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आयुकर्म के सिवाय शेष सात कर्मों की अबाधा का संकेत पूर्व में किया जा चुका है कि एक कोडाकोड़ी सागर की स्थिति में सौ वर्ष अबाधाकाल होता है। लेकिन यह अनुपात आयुकर्म की अबाधा स्थिति पर लागू नहीं होता है । ' इसका कारण यह है कि अन्य कर्मों का बंध तो सर्वदा होता रहता है। किन्तु आयुकर्म का बंध अमुकअमुक काल में ही होता है। इसलिए आयुकर्म के अबाधाकाल का अलग से संकेत किया गया है कि-निरुवकमाण छमासा-निरुपक्रम आयु वाले अर्थात् जिनकी आयु का अपवर्तन, घात नहीं होता ऐसे देव, नारक और भोगभूमिज मनुष्य, तिर्यंचों के आयुकर्म की अबाधा छह मास होती है तथा शेष मनुष्य और तिर्यंचों के आयुकर्म की अबाधा अपनी-अपनी आयु के तीसरे भाग प्रमाण है-अबाह सेसाण भवतंसो।
गति के अनुसार आयुबंध के अमुक-अमुक काल निम्न प्रकार हैंमनुष्यगति और तिर्यंचगति में जब भुज्यमान आयु के दो भाग बीत जाते हैं तब परभव की आयुबंध का काल उपस्थित होता है।
किस-किस गति में जन्म लेते हैं, का स्पष्टीकरण किया गया है। तिर्यंचों के सम्बन्ध में लिखा है
तेउदुगं तेरिच्छे सेसेगअपुण्ण वियलगा य तहा । तित्थूणणरेवि तहाऽसण्णी घम्मे य देवदुगे ॥५४०।।
तेजस्कायिक और वायुकायिक जीव मरण करके तिथंच गति में और मनुष्य गति में हो जन्म लेते हैं। किन्तु तीर्थकर वगैरह नहीं हो सकते हैं तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव पूर्वोक्न तिर्यंच और मनुष्य गति में तथा धर्मा नाम के पहले नरक में और देव द्विक यानी भवनवासी और व्यंतर देवों में उत्पन्न होते हैं। आउस्स य आबाहा ण टिदिपडिभागमा उस्म । -गो० कर्मकांड १५८ जैसे अन्य कर्मों में स्थिति के प्रतिभाग के अनुसार अबाधा का प्रमाण
निकाला जाता है, वैसे आयुकर्म में नहीं निकाला जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org