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शतक
नामकर्म की सत्ता की अपेक्षा से कहा है, न कि सामान्य सत्ता की अपेक्षा से । इसलिए अनिकाचित तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता रहने पर भी जीव का चारों गतियों में जाने में किसी प्रकार का विरोध नहीं है।
उक्त कथन का सारांश यह है कि तीर्थकर नामकर्म की स्थिति अंतःकोड़ाकोड़ी सागरोपम और तीर्थकर के भव स पहले के तीसरे भव में जो उसका बंध होना कहा है, वह इस प्रकार समझना चाहिए कि तीसरे भव में उद्वर्तन, अपवर्तन के द्वारा उस स्थिति को तीन भवों के योग्य कर लिया जाता है। यद्यपि तीन भवों में तो कोड़ाकोड़ी सागरोपम की स्थिति पूर्ण नहीं हो सकती है अतः अपवर्तनकरण के द्वारा उस स्थिति का ह्रास कर दिया जाता है । शास्त्रों में जो तीसरे भव में तीर्थकर प्रकृति के बंध का विधान किया है, वह निकाचित तीर्थंकर प्रकृति के लिये समझना चाहिये यानी निकाचित प्रकृति अपना फल अवश्य दे देती है, किन्तु अनिकाचित तीथंकर प्रकृति के लिये कोई नियम नहीं है । वह तीसरे भव से पहले भी बंध सकती है।
नरकायु और देवायु की उत्कृष्ट स्थिति पहले बतला आये हैं, अतः यहां मनुष्यायु और तिर्यंचायु को उत्कृष्ट स्थित बताई है कि 'नरतिरियाणाउ पल्लतिगं' मनुष्य और तिर्यंचायु तीन पल्य की है।' आयुकर्म की स्थिति के बारे में यह विशेष जानना चाहिये कि भवस्थिति की अपेक्षा से उत्कृष्ट और जघन्य आयु का प्रमाण बतलाया जाता है कि कोई भी जीव जन्म पाकर उसमें जघन्य अथवा उत्कृष्ट कितने काल तक जी सकता है ।
१. नृस्थिती परापरे त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्ते । तिर्यग्योनीनां च ।
-तत्त्वार्थसूत्र ३।१७.१८
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