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________________ ( १३ ) है। इसीलिये परलोकवादी दार्शनिकों ने कर्म का विशिष्ट अर्थ ग्रहण किया है । उनका मत है कि हमारा प्रत्येक अच्छा और बुरा कार्य अपना एक संस्कार छोड़ जाता है। जिसे नैयायिक और वैशेषिक धर्माधर्म कहते हैं । योग उसे आशय और बौद्ध अनुशय नाम से सम्बोधित करते है । कर्म के अर्थ को स्पष्ट करने वाले उक्त नामों में भिन्नता है, लेकिन उनका तात्पर्य यह है कि जन्म-जरा-मरण रूप संसार के चक्र में पड़े हुए प्राणी अज्ञान, अविद्या, मिथ्यात्व से आलिप्त हैं । जिसके कारण वे संसार का वास्तविक स्वरूप समझने में असमर्थ रहते हैं । अतः उनका जो भी कार्य होता है वह अज्ञानमूलक होता है, उसमें रागद्वेष का अभिनिवेश-दुराग्रह लेता है । इसलिए उनका प्रत्येक कार्य आत्मा के बन्धन का कारण होता है। ___यदि उन दार्शनिकों के मन्तव्यों का सारांश निकाला जाय तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके अभिमतानुसार कर्म नाम क्रिया या प्रवृत्ति का है और उस प्रवृत्ति के मूल में रागद्वेष रहते हैं । यद्यपि यह प्रवृत्ति क्षणिक होती है किन्तु उसका संस्कार फल-काल तक स्थायी रहता है । जिसका परिणाम यह होता है कि संस्कार से प्रवृत्ति और प्रवृत्ति से संस्कार की परम्परा चलती रहती है और इसी का नाम संसार है। किन्तु जैन दर्शन के मतानुसार कर्म का स्वरूप किसी अंश में उक्त मतों से भिन्न है । जैनदर्शन में कर्म का स्वरूप जैनदर्शन में कर्म केवल संस्कारमात्र ही नहीं है किन्तु एक वस्तुभूत पदार्थ है जो रागी, द्वषी जीव की क्रिया से आकृष्ट होकर जीव के साथ उसी तरह घुल-मिल जाता है जैसे दूध में पानी । यद्यपि वह पदार्थ है तो भौतिक, किन्तु उसका कम नाम इसलिये रूढ़ हो गया है कि जीव के कर्म अर्थात् क्रिया के कारण आकृष्ट होकर वह जीव के साथ बंध जाता है। ये पदार्थ छह दिशाओं से गृहीत, जीव प्रदेश के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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