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________________ ( १२ ) आचार्य जयन्त ने भी यही बात बताई है - 11 जगतो यच्च वैचित्र्यं सुखदुःखादि भेदतः । कृषिसेवादिसाम्येऽपि विलक्षण फलोदयः अकस्मान्निधिलाभश्च विद्युत्पातश्च कस्यचित् । क्वचित्फलमयत्नेऽपि यत्नेायफलता क्वचित् ॥ तदेतद् दुर्घटं दृष्टात्कारणाद् व्यभिचारिणः । तेनादृष्टमुपेतव्यमस्थ विञ्चन कारणम् ॥ ( न्यायमंजरी पृ. ४२ – उत्तरभाग ) अर्थात् -- संसार में कोई सुखी है तो कोई दुःखी है। खेतो, नौकरी वगैरह करने पर भी किसी को विशेष लाभ होता है और किसी को नुकसान उठाना पड़ता है । किसी को अकस्मात सम्पत्ति मिल जाती है और किसी पर बैठे-बिठाये बिजली गिर पड़ती है। किसी को बिना प्रयत्न किये ही फल प्राप्ति हो जाती है और किसी को यत्न करने पर भी फल प्राप्ति नहीं होती है । ये सब बातें किसी दृष्ट कारण की वजह से नहीं होती । अतः इनका कोई अदृष्ट कारण मानना चाहिए । इसी तरह ईश्वरवादी भी प्रायः इसमें एक मत हैं कि करम प्रधान विश्व करि राखा । जो जस करहि सो तस फल चाखा । कर्म का स्वरूप उपर्युक्त प्रकार से कर्मसिद्धान्त के बारे में ईश्वरवादियों और अनीश्वरवादियों, आत्मवादियों और अनात्मवादियों में मतैक्य होने पर भी कर्म के स्वरूप और उसके फलदान के सम्बन्ध में मौलिक मतभेद है । Jain Education International लौकिक भाषा में तो साधारण तौर से जो कुछ किया जाता है, उसे कर्म कहते हैं । जैसे खाना-पीना, चलना, फिरना, हँसना, बोलना, सोचना, विचारना इत्यादि । लेकिन कर्म का सिर्फ इतना ही अर्थ नहीं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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