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शतक
कोड़ी सागरोपम है-'पढमागिइसंघयणे दस' तथा इनके सिवाय दूसरे से लेकर छठे संस्थान और दूसरे से लेकर छठे संहनन तक प्रत्येक की उत्कृष्ट स्थिति पहले से दूसरे, दूसरे से तीसरे इस प्रकार दो-दो सागरोपम की अधिक है-'दुसुवरिमेसु दुगवुड्ढी' अर्थात् दूसरे संस्थान और दूसरे संहनन की उत्कृष्ट स्थिति बारह कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, तीसरे संस्थान और तीसरे संहनन की उत्कष्ट स्थिति चौदह कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, इसी प्रकार चौथे की सोलह, पांचवें की अठारह और छठे की बीस कोडाकोड़ी सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है । जो नामकर्म की उत्कृष्ट स्थिति है। ___ संस्थान और संहनन के भेदों की उत्कृष्ट स्थिति की इस प्रकार की क्रम वृद्धि होने का कारण कषाय की हीनाधिकता है । जब जीव के भाव अधिक संक्लिष्ट होते हैं तब स्थितिबंध भी अधिक होता है
और जब कम संक्लिष्ट होते हैं तब स्थितिबंध भी कम होता है इसीलिये प्रशस्त प्रकृतियों की स्थिति कम और अप्रशस्त प्रकृतियों की स्थिति अधिक होती है । क्योंकि उनका बंध प्रशस्त परिणाम वाले जीव के ही होता है।
चालीस कसाएसु मिउलहुनिद्धण्हसुरहिसियमहुरे । दस दोसढसहिया ते हालिबिलाईणं ॥२६॥
शब्दार्थ-चालीस-चालीस कोडाकोड़ी सागरोपम, कसाएसु-कषायों की, मिउलहुनिख-मृदु, लघ, स्निग्ध स्पर्श, उण्ह सुरहि - उष्ण स्पर्श, सुरभिगंध की, सियमहुरं -- श्वेत वर्ण और मधुर रस की, दस-दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम, दोसढ्ढसमहिया -- डाई कोड़ा-कोडी सागरोपम अधिक, ते-वे (दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम), हालिबिलाईणं--पीत वर्ण, अम्ल रस आदि ।
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