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शतक
अबाधाकाल का ऐसा नियम है कि जघन्य स्थिति बन्ध में अन्तमुहूर्त का अबाधाकाल, समयाधिक जघन्य स्थितिबन्ध से लेकर पल्योपम के असंख्य भागाधिक स्थिति बांधने के समय तक समयाधिक अन्तमुहूर्त तथा उसकी अपेक्षा समयाधिक बन्ध से लेकर दूसरे पल्योपम का असंख्यातवां भाग पूर्ण होने तक दो समय अधिक अन्तमुहूर्त का अबाधाकाल होता है। इस प्रकार पल्योपम के असंख्यातवें भागाधिक बंध में समय-समय का अबाधाकाल बढ़ाते जाने पर पूर्ण कोड़ाकोड़ी सागरोपम के बंध में सौ वर्ष का अबाधाकाल होता है । यानी उतने काल के जितने समय होते हैं, उतने स्थानों में दलिकों की रचना नहीं होती है। ___इस प्रकार से मूल कर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति बतलाने के पश्चात अब उत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति का कथन करते हैं । उत्तर प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध
विग्धावरणअसाए तीसं अट्ठार सुहृमविगलतिगे। पढमागिइसंघयणे दस दुसुवरिमेसु दुगवुड्ढी ॥२८।।
शब्दार्थ --विग्यावरणअसाए-पांच अन्तराय, पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण और असातावेदनीय कर्म की, तीसं -तीस कोडाकोड़ी सागरोपम, अट्ठार - अठारह कोड़ाकोड़ी सागरोपम, सुहुमविगलतिगे-सूक्ष्मत्रिक और विकलत्रिक में, पढमागिइसंघयणे-प्रथम संस्थान और प्रथम संहनन में, दस - दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम, दुसु-दोनों में, उवरिमेसु-उत्तर के संस्थान और संहननों में, दुगवुड्ढी-दो-दो कोडाकोड़ी सागरोपम की वृद्धि ।
गाथार्थ-पांच अन्तराय, पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण और असाता वेदनीय की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है। नामकर्म के भेद सूक्ष्मत्रिक और
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