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________________ पंचम कर्मग्रन्थ ११६ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय की अंतमुहूर्त, वेदनीय की बारह मुहूर्त, आयु की अन्तमुहूर्त, नाम और गोत्र की आठ-आठ मुहूर्त है ।' स्थितिबन्ध का मुख्य कारण कषाय है। कषायोदयजन्य संक्लिष्ट परिणामों की तीव्रता होने पर उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध होता है और कषाय परिणामों के मंद होने पर जघन्य स्थिति का बन्ध होता है तथा मध्यम परिणामों द्वारा अजघन्योत्कृष्ट (मध्यम) स्थिति का बन्ध होता है। यद्यपि प्रकृतिबन्ध के पश्चात उसके स्वामी का वर्णन करना चाहिये था लेकिन बंधस्वामित्व की टीका में उसका विस्तार से वर्णन किये जाने के कारण पुनरावृत्ति न करके यहां स्थितिबन्ध को बतलाया है। बन्ध हो जाने पर जो कर्म जितने समय तक आत्मा के साथ ठहरा रहता है, वह उसका स्थितिबन्ध कहलाता है। कर्म बंधने के बाद ही तत्काल अपना फल देना प्रारम्भ नहीं कर देते हैं और न एक साथ ही एक समय में अपना पूरा फल दे देते हैं। किन्तु यथासमय फल देना प्रारम्भ करके अपनी शक्ति को कम से नष्ट करते हैं । इस बंधने के समय से लेकर निर्जीर्ण होने के समय तक कर्मों की आत्मा के साथ संबद्ध रहने की अधिकतम और न्यूनतम कालमर्यादा को बतलाने के लिए स्थितिबन्ध का कथन किया जाता है। अधिकतम १ (क) बारस य वेयणीये णामे गोदे य अट्ठ य मुहुत्ता। भिण्णमुहुत्तं तु ठिदी जहण्णयं सेसपंचण्हं ।। -गो० कर्मकांड १३६ (ख) अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य । नामगोत्रयोरष्टौ । शेषाणामन्तर्मुहूर्तम् । -तत्वार्थसूत्र ८ । १६, २०, २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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