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________________ पंचम कर्मग्रन्थ ११५ ___ यह एक सामान्य नियम है किन्तु वेदनीय के सिवाय शेष चार कर्मों में अवक्तव्य और अवस्थित बंध होते हैं। क्योंकि ग्यारहवें गुणस्थान में ज्ञानावरण, अंतराय और गोत्र कर्म का बंध न करके जब कोई जीव वहां से च्युत होता है और नीचे के गुणस्थान में आकर पुनः उन कर्मों का बंध करता है तब प्रथम समय में अवक्तव्य बंध होता है और द्वितीय आदि समयों में अवस्थित बंध होता है तथा त्रिभाग में. जब आयु कर्म का बंध होता है तब प्रथम समय में अवक्तव्य बंध होता है और द्वितीय आदि समयों में अवस्थित बंध होता है। किन्तु वेदनीय कर्म में केवल अवस्थित बंध ही होता है, अवक्तव्य बंध नहीं । क्योंकि वेदनीय कर्म का अबन्ध अयोगि-केवली गुणस्थान में होता है, किन्तु वहां से गिरकर जीव के नीचे के गुणस्थान में नहीं आने के कारण पुनः बंध नहीं होता है । ___इस प्रकार से कर्मों की बंध-योग्य १२० उत्तर प्रकृतियों में बंधस्थानों और उनके भूयस्कर आदि बंधों को बतलाया गया है । जिनका कोष्टक पृष्ठ ११६ पर दिया गया है। प्रकृतिबंध का वर्णन करने के बाद अब आगे की गाथाओं में स्थितिबंध का वर्णन करते हैं। मूल कर्मों का उत्कृष्ट, जघन्य स्थितिबंध वीसयरकोडिकोडी नामे गोए य सत्तरी मोहे। तीसयर चउसु उदही निरयसुराउंमि तित्तीसा ॥२६॥ मुत्तुं अकसायठिई बार मुहुत्ता जहन्न वेयणिए । अट्ठट्ट नामगोएसु सेसएसु मुहुत्ततो ॥२७॥ शब्दार्थ-वीस-बीस, अयरकोडिकोडी--कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, नामे-नामकर्म की, गोए-गोत्रकर्म की, य-और सत्तरी-सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, मोहे-मोहनीयकर्म की, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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