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शतक
आठ बन्धस्थानों की अपेक्षा से आठ ही अवस्थित बन्ध होते हैं । ग्यारहवें गुणस्थान में नामकर्म की एक भी प्रकृति को न बाँधकर वहाँ से च्युत होकर जब कोई जीव एक प्रकृति का बंध करता है तब पहला अवक्तव्य बन्ध होता है तथा ग्यारहवें गुणस्थान में मरण करके कोई जीव अनुत्तर देवों में जन्म लेकर यदि मनुष्यगति योग्य तीस प्रकृति का बन्ध करता है तब दूसरा अवक्तव्य बन्ध होता है और मनुष्यगति योग्य उनतीस प्रकृति का बन्ध करता है तो तीसरा अवक्तव्य बन्ध होता है । इस प्रकार तीन अवक्तव्य बन्ध होते हैं ।' .
इस प्रकार से गाथा के तीन चरणों में नामकर्म के बंधस्थानों और उनमें भूयस्कर आदि बंधों का निर्देश करके शेष कर्मों के बंधस्थानों को बतलाने हेतु गाथा के चौथे चरण में संकेत दिया है कि 'सेसेसु य ठाणमिक्किक्कं'.शेष पांच कर्मों-ज्ञानावरण, वेदनीय, आयु, गोत्र, अन्तराय में एक-एक ही बंधस्थान होता है । क्योंकि ज्ञानावरण और अंतराय की पांच-पांच प्रकृतियां एक साथ ही बंधती हैं और एक साथ ही रुकती हैं। वेदनीय, आयु, गोत्र कर्म की उत्तर प्रकृतियों में भी एक समय में एक-एक प्रकृति का ही बंध होता है । जिससे इन कर्मों में भूयस्कार आदि बंध नहीं होते हैं । क्योंकि जहां एक ही प्रकृति का बंध होता है, वहां थोड़ी प्रकृतियों को बांध कर अधिक प्रकृतियों को बांधना या अधिक प्रकृतियों को बांधकर थोड़ी प्रकृतियों को बांधना संभव नहीं होता है।
१ गो० कर्मकांड गा० ५६५ से ५८२ तक नामकर्म के भूयस्कार आदि
बन्धों की विस्तार से चर्चा की है । उसमें गुणस्थानों की अपेक्षा से भूयस्कार आदि बंध बतलाये हैं और जितने प्रकृतिक स्थान को बाँधकर जितने प्रकृतिक स्थानों का बन्द संभव है और उन-उन स्थानों में जितने भंग हो सकते हैं, उन सबकी अपेक्षा से भूयस्कार आदि को बतलाया है ।
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